सोमवार, 26 सितंबर 2016

टिकाऊ विकास लक्ष्य (Sustainable Development Goals)

आज यून महासभा को संबोधित करते हुए हमारी विदेश मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज ने अपने भाषण के पहले हिस्से में टिकाऊ विकास एजेंडे का जिक्र किया.. तो क्या हैं ये टिकाऊ विकास लक्ष्य (Sustainable Development Goals)..??
25 सितंबर 2015 को संयुक्त राष्ट्र संघ में देशों ने एक नए टिकाऊ विकास एजेंडा के हिस्से के रूप में गरीबी समाप्त करने के लिए, हमारे ग्रह की रक्षा करने और सभी के लिए समृद्धि सुनिश्चित करने के लिए लक्ष्यों के एक समूह को अपनाया। प्रत्येक लक्ष्य का एक विशिष्ट उद्देश्य है जिसे अगले 15 बरसों में हासिल किया जाना है।
इन लक्ष्यों को हासिल करने के लिए हममें से हर एक को इस मुहिम का हिस्सा बनने की जरूरत है, फिर वो चाहे सरकारें हों, निजी क्षेत्र हो या सिविल सोसाइटी या फिर हम आप।
इसमें शामिल होने की पहली शर्त इस विचार, उद्देश्य और इसके लक्ष्यों को हर एक व्यक्ति तक पहुंचाना है। हम इसमें अपने दैनिक जीवन में थोड़े से बदलाव करके योगदान कर सकते हैं। कमाल की बात यह है कि हमारा योगदान हमें तय करना है। ये उतना ही जरूरी है जितना कि हमारे अपने बच्चे..क्योंकि ये सारी कवायद सिर्फ इसलिए है जिससे कि हमारे नौनिहालों को और आने वाली पीढ़ियों को एक बेहतर समाज, देश व दुनिया मिल सके।
ध्यान रहे कि सिर्फ हमें अपने हिस्से का योगदान देना है और दूसरों को उनके योगदान की जिम्मेदारी का सविनय ध्यान दिलाना है।
कुल मिला कर 17 लक्ष्यों का निर्धारण हुआ है, जो प्राथमिकता के आधार पर निम्म क्रम में हैं -
1. शून्य गरीबी
2. शून्य भुखमरी
3. अच्छा स्वास्थ्य व जन कल्याण
4. गुणवत्तापरक शिक्षा
5. लैंगिक समानता
6. स्वच्छ पानी व स्वच्छता
7. किफायती व स्वच्छ ऊर्जा
8. समुचित कार्य व आर्थिक प्रगति
9. उद्योग, नवाचार व बुनियादी ढ़ांचा
10. असमानता में सतत कमी
11. टिकाऊ शहर व समुदाय
12. उत्तरदायी खपत और उत्पादन
13. जयवायु संबंधी कार्रवाई
14. जल के भीतर जीवन
15. जमीन पर जीवन
16. शांति, न्याय व मजबूत संस्थान
17. इन लक्ष्यों को हासिल करने के लिए साझीदारी
अगली ब्लॉग पोस्ट में हम चर्चा करेंगे कि इन लक्ष्यों को हासिल करने के लिए हम व्यक्तिगत तौर पर क्या योगदान कर सकते हैं?

सोमवार, 4 अप्रैल 2016

क्यों नहीं हो सकी और क्यों संभव नहीं है भारत में वाम क्रांति...



मेहनत, व्यापार, जोखिम व लाभ-हानि..ये चार ऐसे शब्द हैं जिनको जीवन में उतारने वाला किसान व व्यापारी बनता है, उद्यमी बनता है और अंततः सफल हो पूंजी का निर्माण करता है। लेकिन भारतीय वामपंथियों और समाजवादियों को इन चारों (मेहनत, व्यापार, जोखिम व लाभ-हानि) अल्फाज़ों से नफरत हैं। उनको नफरत इसलिए हैं कि वे मैकाले पद्धति के पढ़े-लिखे और वेतनभोगी होना पसंद करते हैं। वे किसान, मजदूर नहीं होना चाहते...वो उनके लिए आवाज़ उठाने वाले बनना चाहते हैं। वो जानते हैं कि किसान या व्यापारी बनने का मतलब है - बरस-दर-बरस सर्वस्व दांव पर लगाना...लेकिन इतना बड़ा जोखिम और साहस करने योग्य होते तो वही न कर रहे होते न?
ये बस अपने भय से आपको डराते हैं, इनका भय भी एकमात्र यह है कि देश-समाज में वह पक्ष हावी न हो जाए जो इन कामचोरों और गैरजिम्मेदार लोगों को काम करने और मेहनत करने पर मजबूर कर दे। जो इनको इनके कंफर्ट ज़ोन से बहार घसीट कर परेशान न कर दे। ये धर्म और दक्षिणपंथ को अफीम और फासिस्ट बता कर उनका भय दिखा कर खुद को स्थापित करते है। ये आज़ादी की मांग करके लोगों को सब्जबाग दिखा कर खुद को स्थापित करते हैं और जब सत्ता में आते हैं तो अपने चारों ओर दीवारें खड़ी कर लेते हैं और लग जाते हैं उस सुंदर समाज के प्रचार में जो दीवार के उस ओर होना बताया जाता तो है, लेकिन वास्तविकता में होता नहीं है। यही कारण है कि पूरी दुनिया का एक भी ऐसा वामपंथी विचारधारा वाला देश न हुआ जो दीवारें गिरने पर अंदर से लुटा पिटा न निकला। वहां पर लोगों को रोटियों के लिए भी लाइन लगाए, भुखमरी और गरीबी से मरता दुनिया ने देखा है।

आखिर वहां पर भी धर्म और दक्षिणपंथ का भय दिखा कर ही सत्ता हासिल की गयी थी....किसके लिए? सर्वहारा के लिए, आज़ादी के लिए (अरे वही कन्हैया टाइप्स) और अंततः क्या हुआ... स्टालिन, चाऊशेस्कू वगैरह पैदा हुए जो और बड़े आदमखोर थे (तो अब तो उदाहरण भी नहीं कि बता सकें कि देखो वो रहा हमारा मॉडल जो सफल है)। इसीलिए ये बस पैदा होने से मरने तक आलूचना बेचते आई मीन आलोचना करते रहते हैं।


ये दरअसल उस कला आलोचक जैसे होते हैं जो आलोचना तो खूब करता है लेकिन जब ब्रश पकड़ा दिया जाता है तो सारी आलोचना फना हो जाती है। ये आलोचनाएं तो खूब करेंगे और जब आप इनसे संशोधित योजना की बात करेंगे तो ये बगले झांकने लगेंगे। इनके पास दरअसल कोई सफल योजना जैसी चीज है ही नहीं। ये तो बस क्रांति के हवा-हवाई महल और समानता के गीत गाते स्वप्नजीवी होते हैं। जिनका हकीकत से बस इतना वास्ता होता है कि धंधा-पानी बरकरार रहे।



दिल्ली व अन्य राजधानियों में बैठे कर क्रांति की दंड-बैठक पेलने वाले अधिकांश वामियों और समाजवादियों की पृष्ठभूमि या तो ग्रामीण होगी या सफल वामी (स्थापित व कमाऊ वामी) परिवार की मिलेगी। अभी हाल में दिल्ली में आज़ादी के लिए स्यापा पीटने वाले लोगों की पारिवारिक पृष्ठभूमि यही है। इनको मुफ्त आवास, भोजन और नशा-पत्ती मिल रहा है तो माँ-बाप के पास जा कर खटने की जरूरत किसे है? 



ब ऐसे लोग अगर किसी देश में समाज में परिवर्तन और क्रांति का बीड़ा उठाएं होंगे तो 90 क्या, 900 क्या, 9000 बरस नहीं होनी क्रांति क्योंकि कारण साफ है। ये चाहते ही नहीं समाज में परिवर्तन ये तो बस अपने आरामतलब, गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार और कामचोरपने वाली जिंदगी को जीते रहना चाहते हैं। 

मजे की बात तो यह है कि ईश्वर को न मानने वाले वामपंथी, प्रकृति में भी यकीन नहीं करते हैं। क्रांति की इनकी प्रिय अवधारणा - स्पॉन्टेनियस है। वह परजीवी क्रांति-बेल जो जिस पेड़ पर चढ़ जाए उसे नष्ट कर दे। JNU इसका एक ज्वलंत उदाहरण है। जिस विश्वविद्यालय को 'राष्ट्रीय एकता और अखंडता' (जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय अधिनियम 1966) को बढ़ावा देने के उद्देश्य से बनाया गया उसी का नाश करने पर तुले हैं। काश्मीर को स्वतंत्र कराने के लिए सर्वस्व निछावर करने वाले ये लोग दूसरी ओर राष्ट्र की अवधारणा को ही नकारते हैं। 

इतना अधिक कन्फ्यूज है भारतीय वामपंथ, कि तय ही नही कर पाता किस फाइनांसर के साथ खड़े हों। वो कभी कांग्रेस से वित्तपोषित होता दिखता है तो कभी सरहद पार से। भारत में अपनी पैदाइश से लेकर आज तक इस विचारधारा ने जितनी वल्दियत बदली है उतनी बार तो सांप आपने जीवन में केचुंल नहीं उतारता और गिरगिट रंग नहीं बदलता। कहने का तात्पर्य यह है कि इनको सिर्फ और सिर्फ अपने से मतलब है। अपने से अर्थ है - खुद से (विचारधारा समूह से नही)। ये लाभ के लिए आपस में भी कुत्ता-घसीटी कर डालते हैं। जलेस और प्रलेस के झगड़े और उससे भी पहले वामपंथियों का आपसी विभाजन इसके कुछ एक उदाहरण हैं। ये विशुद्ध रूप से अपने तक सीमित लोगों का एक समूह है जो अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए ही एकजुट होता है और किसी के भी साथ खड़ा सकता है, किसी के भी साथ।

पहली आज़ादी तो वे खुद से तय कर निकले हैं, दुखी व गरीब माँ बाप से आजादी, उनकी जिम्मेदारी से आजादी। और ये वो लोग हैं जो समाज में क्रांति की जिम्मेदारी उठाने निकाले हैं। जो स्थापित परिवारों से हैं उनके लिए तो यह पेशा है। फटहा झोला लटका कर खुद के आरामतलब, गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार (सामाजिक संबंधों से इसीलिए भागते हैं, यू नो लिव इन रिलेशन वगैरह) और कामचोरपने को क्रांति के लबादे से ढ़ंक कर रखना। ये दोनो ही वे लोग है जो हसिया या हथौड़ा दोनो ही उठा कर आठ घंटे काम कर लें तो हसिया और हथौड़ा दोनो शर्म से धरती में धंस जाएं।


ये दरअसल भिन्न-भिन्न कालखंडों में हरामखोरी की जीवनशैली के हामी लोगों का एक कुनबा भर है (70 के दशक के हिप्पियों जैसे)। 

सो जिनका लक्ष्य ही क्रांति नहीं है वो क्या करेंगे क्रांति?


रविवार, 6 मार्च 2016

रोहित वेमुला और समाज के हाशिये पर बैठे, पीड़ित और सताए हुए गरीब विद्यार्थियों के लिए मगरमच्छी आँसू बहाने वाले राजनीतिक दलों की असली नीयत का जीता-जागता उदाहरण है, इलाहाबाद विश्वविद्यालय की छात्रसंघ अध्यक्षा का प्रवेश

दो बरस पहले आरक्षित सीट पर किसी हरिजन या ओबीसी का हक मारते हुए एडमीशन लेने वाले और दिलाने वाले सवर्ण लोगों को इलाहाबाद विश्वविद्यालय की अध्यक्षा के एडमीशन पर क्या कहना है? इलाहाबाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय की छात्रसंघ अध्यक्षा ने राष्ट्रपति को पत्र लिखा है - उनका उत्पीड़न इस लिए हो रहा है क्योंकि उन्होने योगी आदित्यनाथ के कार्यक्रम का पुरजोर विरोध किया था - और कुछ लोग सवाल उठा रहे हैं कि दो बरस पहले के इस प्रकरण पर आज कार्रवाई क्यों?

इलाहाबाद विश्वविद्यालय की छात्रसंघ अध्यक्षा जी कृपया ये बताएं कि दो बरस पहले आपने किसी हरिजन या ओबीसी का हक मारा तब आपने उनके उत्पीडित होने के बारे में क्यों न सोचा? आज आपको अपने उत्पीड़न की चिंता हो रही है? समाज के हाशिये पर बैठे, पीड़ित और सताए हुए गरीब घरों के उन विद्यार्थियों के साथ हो रही ज्यादती का विरोध तक क्यों नहीं किया? आपको लाभ हो रहा था इसीलिए न?  यही एक कारण हो सकता है। आप जानकार न थी यह कोई वजह नहीं हो सकती, और अगर उस (जानकारी न होने के) कारण को मान भी लें तो आज आप उस गलती को सुधारने का बजाए राष्ट्रपति को पत्र लिख कर आदर्श संघर्ष के किस मानक की स्थापना कर रही हैं? आप विद्यार्थियों का प्रतिनिधित्व करने वाली एक ऐसी अध्याक्षा हैं जिसने समाज के हाशिये पर बैठे, पीड़ित और सताए हुए गरीब घरों के विद्यार्थियों का हक मारा है। और तो और हमने सुना है कि हरिजनों और ओबीसी के लिए ज़ार-ज़ार रोने वाले कांग्रेसी और वामपंथी दलों ने आपका चुनाव में समर्थन भी किया था?

और वे लोग जो दो बरस बाद की जाने वाली संभावित जांच पर सवाल उठा रहे हैं तो उनसे मेरा यह पूछना है कि वे किस परम्परा को जन्म दे रहे हैं क्या त्रुटि या अपराध का पता लगने पर उसके सुधार या दंड का प्रावधान करने से पहले यह देखना चाहिए कि वह कितने पहले हुआ था? यानी कि पुरानी घटी घटनाओं और हादसों के लिए उत्तरदायी जीवित लोगों को मात्र इसलिए बक्श दिया जाना चाहिए कि वह घटना पुरानी हो गयी? क्या किसी पीड़ित और सताए हुए गरीब घर के विद्यार्थी के हक मारने वाले और फिर पकड़े जाने पर इधर-उधर के बहाने लगाकर उत्पीड़न का आरोप लगाने वाले को मात्र इसलिए छोड़ दिया जाना चाहिए कि उसका एडमीशन दो बरस पहले हुआ था (भले ही गलत तरीके से हुआ हो)।

मैं मानता हूँ इलाहाबाद विश्वविद्यालय की छात्रसंघ अध्यक्षा का कैरियर भी दांव पर है और वे भी विद्यार्थी भी है लेकिन उनके आरोप-प्रत्यारोप भरे व्यवहार से स्पष्ट है कि उन्होने अपना कैरियर चुन लिया है। सो वे बेहतर स्थिति में हैं कि अपने सही और आदर्श निर्णय से समाज में एक नई राजनीतिक और सामाजिक न्याय से ओतप्रोत पहल का उदाहरण प्रस्तुत करें। यह पहल कैसी होगी, ऐसी होगी या वैसी होगी... इसे देश के युवाओं को इस्तेमाल करने वाली राजनीति तय करेगी या वे स्व-निर्णय लेंगी... आने वाला समय ही बता पाएगा।







शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2016

भारतीय समाज में व्याप्त भेदभाव

आज के भारतीय समाज में व्याप्त भेदभाव के मसले पर अधिकांश लोकप्रिय दलित चिंतक आपको टकराव की ओर ले जाते दिखेंगे, लेकिन समाज में व्याप्त भेदभाव पर सकारात्मक सुझाव और सुधार की पहल करता कोई न दिखेगा। हमारे आपके दर्शनार्थ इन सभी के आदर्श, बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर या मान्यवर कांशीराम दिखेंगे, लेकिन कोई उनके जीवन संघर्ष को जीने की इच्छा रखता न दिखेगा।
मेरा मानना है कि इसका एक ही कारण है। समाज सुधार एक प्रकार की साधना है जो पूरा समर्पण मांगती है, लेकिन जब इसे व्यवसाय बनाने की लालसा हो तो जो लालसा होगी वही सिद्ध होगी न?
सरल सी बात नहीं समझ आती हम लोगों को कि समाज के किसी तबके को समाप्त करके इस समस्या का हल संभव नहीं है। समाज के हर हिस्से को इसके लिए जागृत होना होगा। इस समस्या से संघर्ष नहीं, समग्र सुधार की भावना से ही निपटा जा सकता है। लेकिन ये दलित चिंतक जानते हैं कि अगर समाज की समझ में यह बात आ गयी तो इनकी रोजी रोटी ही बंद हो जाएगी। इनके इस कुचक्र को समझना होगा और इसे भेदना होगा। हमें समझना होगा कि समाज सुधार में नेतृत्व का काम समाज को तैयार करना होता है, समाज में भेद पैदा करना नहीं। सो उत्तरदायित्व हमारा है। मुझे तो यह समझ आता है कि जिस दिन कर्म के आधार पर समाज में कर्म के महत्व की पुनःस्थापना की शुरुआत होगी, उस दिन से समाज में फैले इस भेदभाव को सुधारने की ओर हम पहला कदम बढ़ा देंगे।
दरअसल यह या किसी भी तरह का भेदभाव एक सड़ांध भरा नाला हैं जो समाज के बीचो-बीच बह रहा है, उसके लिए हर घर जा कर घरों के मुखियाओं को समझाना होगा कि इस नाले में अपने घर के हिस्से की सड़ांध डालना बंद करें और यह एक दो या दस बरस में होने वाला काम नहीं है। घरों तक जाने की बात इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि देश की मूल इकाई घर-परिवार ही हैं। 
जबकि आज के अधिकांश दलित चिंतक तो बस इस नाले से अपने हिस्से की खाद और गैस को बेच कर ऐश कर रहे हैं।
सो सारांश यह है कि हम इस समस्या के समाधान के लिए अपने-अपने हिस्से की जिम्मेदारी का निर्वहन करें तब ही इस समस्या का सामना किया जा सकता है।


शनिवार, 3 जनवरी 2015

"इम्पोर्टेड बाबा"

यारब न वो समझे हैं न समझेंगे तेरी बात,
उनके दिमाग पर कुंडली, बाबा धरे जनाब।
भारत के नाम से, उनको आती रही मिर्गी,

हिन्दोस्तां सेक्युलर है औ इंडिया है फ्रेंडली।
बाबा ने कहा था कि बनाएंगे सबको एक,
गदहे बनेंगे घोड़े और फिर बनेंगे कामरेड।
आएगी मियां जोर से जब क्रांति झमाझम्म,
राजा बनेंगे लुल्ल, और फटीचर चकाचक्क।
ऐसा करेंगे वो कि, वैसा करेंगे वो,
हाथी मारेंगे और चीता फाड़ेंगे वो।
एक्सपेरिमेंट रशिया में तभी फेल हो गया,
विस्फोट होय गया औ कुनबा बिखर गया।
हालत खराब हो गयी औ हाजत हुई खराब,
केवल बचा है कच्छा औ कपड़े सभी खराब।
कुछ बरस चिपके रहे, पंजे का बनके जोंक,
सवाल पूछने का बस अब पाल लिया शौक।
हंसिये हथौड़े से अब तौलते हैं सबका काम,
बाबा अभी भी सिर पे बजते हैं सुबो-शाम।
 ‪#आशुवाणी

गुरुवार, 25 दिसंबर 2014

अटल बनाम मोदी - खुद के आगे बीन बजाता मीडिया!

कल चैनलों पर यायावरी करते हुए एनडीटीवी पर अभिज्ञान जी को देखा, साथ में टंडन जी (अटल जी के मीडिया सलाहकार) को देखकर सुखद आश्चर्य हुआ, सो रुक कर सुनने लगा।

10-15 मिनट में ही अभिज्ञान की लाचारगी पर तरस आने लगा - विषय था - भारत रत्न मिलने पर अटल जी के गुणों का विश्लेषण..अभिज्ञान अपनी पीड़ा को परदे में लेते हुए बिना नाम लिये अटल जी की तुलना मोदी जी से करने लगे कि.."एक अटल जी थे और एक आज के नेता है।" टंडन जी ने लगभग झिड़कते हुए (अटल जी के स्तर से वह झिड़कना ही था) कहा कि - अटल जी की मोदी जी से तुलना करने से पहले एक किस्सा सुन लीजिए..."प्रभाष जोशी जी उस दौरान जनसत्ता के संपादक थे जब अटल जी पीएम थे और जोशी जी एक साप्ताहिक कॉलम लिखते थे - 'स्वयंसेवी प्रधानमंत्री' और मजाल है कि अटल जी उस कॉलम को पढ़ना भूल जाए (ध्यान रहे कि अटल जी और जोशी जी घनिष्ठ मित्र थे)। जोशी जी का पत्रकारिता में क्या कद था यह बताने की जरूरत किसी को नहीं है। अटल जी उनको इसलिए पढ़ते थे क्योंकि वह वादविहीन आलोचना थी, तटस्थ और रचनात्मक थी। आप खुल कर नाम लीजिए कि आप मोदी जी की तुलना अटल जी से कर रहे हैं। ऐसे में जिस शख्स को 40 बरस मीडिया का प्यार मिला हो उसकी तुलना ऐसे शख्स से करना जिसे मीडिया ने 12 बरस तक बायस्ड हो कर किनारे लगाने का प्रयास किया और नतमस्तक हो गया (मीडिया का आज का सुर देख लीजिए)।"

माफ करिएगा लेकिन... क्या प्रभाष जी जैसी पत्रकारिता का पसंगा भर भी करने वाला कोई पत्रकार आज मीडिया में है?

पत्रकारिता में प्रभाष जी के चेले उसी तरह से हो गए हैं जैसे राजनीति में जेपी के चेले। उनमें इस बात की होड़ लगी रहती है कि वे कैसे सिद्ध करें कि वे प्रभाष जी के कितने नज़दीक और प्यारे थे...लेकिन इनमें से कोई भी आत्ममुग्धता और समझौतों से मुक्त नहीं हैं। "मैने जीवन में पेश के लिए कभी किसी तरह समझौता नहीं किया" - जब कोई पत्रकार, संपादक ऐसा बोलता है तो सुनने पढ़ने वाला हर शख्स जानता है कि सामने वाला क्या कहना चाहता है। इन चेलों को लगता है कि प्रभाष जी को लोग जानते नहीं है। उन्होने कभी भी ऐसा दावा नहीं किया, क्योंकि उनको ऐसा करने की जरूरत ही नही थी, उनके कर्म उनकी लेखनी बोलती थी।

ऐसे में मेरे मन में सवाल पैदा हुआ कि अभिज्ञान मोदी जी से अटल जी जैसा बनने की अपेक्षा करते हुए, यह अपेक्षा क्यो करने लगे कि उनको प्रभाष जोशी जी जैसा समझा जाए। क्या तुलना है? है भी या नहीं? पिछले कुछ बरसों में राजनीति और राजनीतिज्ञों के प्रति उपजी नकारात्मकता का श्रेय लेने को यह मीडिया तैयार नहीं है लेकिन प्रबल और मजबूत राजनीतिक नेतृत्व के उभार के कारण युवाओं में फिर से राजनीति के प्रति उभरती सकारात्मकता को लेने का श्रेय इस मीडिया को जरूर चाहिए। ऐसे गैरजिम्मेदार मीडिया की स्थिति हमारे देश के बड़े बाबुओं सरीखी है जो अधिकारों की तो बात करता है लेकिन उत्तरदायित्व से भागता है। फिर तुलना कैसी, किसकी और क्यों? सिर्फ कार्यक्रम बनाकर अपना चेहरा चमकाने के लिए। क्या मज़ाक है!

जब आप तुलना करते हैं तो उसका आधार क्या होता है, या बस 30 मिनट के कार्यक्रम को निपटाने बैठ जाते हैं। अंत करते हुए अभिज्ञान कहते हैं कि अटल जी उनको प्यार से 'अभिज्ञान शांकुतल' बोलते थे। बोलेंगे ही...लॉलीपॉप बच्चों को दिया जाता है, उनको पता है कि सामने वाला किस टॉफी को पकड़ कर ज़िंदगी भर चूसरा चुगलता, मगन रहेगा। जब आप जैसे पत्रकारों से भरा दृष्य मीडिया- 'राजधर्म निभाएं' जैसे वाक्य को बोलते समय अटल जी के मंतव्य को भाव को और संदेश को न समझ सका और अपने मन की व्याख्या को लेकर कल का थूका आज चाट रहा है तो समझा जा सकता है तुलना और तुनलात्मकता की कितनी समझ इस मीडिया को है।

यह तो एक उदाहरण था, इसी तरह के विश्लेषण कमोबेश हर चैनल पर थे...हिन्दी, अंग्रेज़ी दोनो!

रविवार, 24 अगस्त 2014

किरांति के वास्ते.....

चेहरा बना है लाल, किरांति के वास्ते,
उनका बढ़ा है बाल, किरांति के वास्ते।
दाढ़ी में है ख़िजाब, किरांति के वास्ते,
झोले में है हथियार, किरांति के वास्ते।
गुदड़ी के बने लाल, किरांति के वास्ते,
मुर्गे भी हैं हलाल, किरांति के वास्ते।
उंगली में है सिगार, किरांति के वास्ते,
हाथों में है गिलास, किरांति के वास्ते।
वोटर किया आयात, किरांति के वास्ते,
मइया को मारी लात, किरांति के वास्ते।
अनुदान लिया खाय, किरांति के वास्ते,
खा करके मारी लात, किरांति के वास्ते।
धरना है कारोबार, किरांति के वास्ते,
कुर्सी की है दरकार, किरांति के वास्ते।
कच्छे में रखा रुमाल, किरांति के वास्ते,
गिरगिट सा है जमाल, किरांति के वास्ते।
कारखाने कब्र हो गए, किरांति के वास्ते,
मजदूर दफन हो गए, किरांति के वास्ते।
क्या-क्या करोगे यार, किरांति के वास्ते,
रस्ते किए सब बंद, किरांति के वास्ते।
भेड़िए ने पहनी खाल, किरांति के वास्ते,
कब तक चलेगा स्वांग, किरांति के वास्ते?  - आशु वाणी