रविवार, 26 मई 2013

पत्नी की आँख, भेड़िये की आँख(वाईफ आई, वुल्फ आई), लेखक - बेंजामिन रोसेनबाउम

मेरा पहला और अंतिम साहित्य अनुवाद....

लड़ाई नदी के उस पार और जंगल से बाहर की ओर मुड गयी.गौरैयों की लड़ाई पेड़ और फर के बीच की तंग जगहों से निकल कर सिकु़डती सी बाहर आ गयी. एक सर्द बादल, एक भेड़िये की लम्बी आह, भोर में पक कर फूटने को तैयार जगमगाती ओस की बूँदें, वे फूट कर धुंध में मिल रही हैं.

घड़ी समय के साथ चलती जा रही है, दादी माँ रजाई में लिपटी सो रही है, उन दीवारों के बीच, जो नीचे गिराई नहीं जा सकती, सिमटी हुई हवा में गहरी साँसे भर रही है. उसकी इस यात्रा के रास्ते में कोई भी सीमेंट, चौखट, ईंट या पत्थर,हिरन या गौरैया नहीं आ रहे थे. और तो और भेड़िया भी वहां नहीं आ रहा था.


इस बात की संभावना नहीं है कि आत्मीयता भरी हरी आंखें, जिनका एक अपना कमरा है, जिसमें एक आराम कुर्सी है, मिट्टी की गुड़िया है, और भट्ठी पर रक्खी एक थाली है वहां एक भेड़िया आये और वार्निश की हुई मेज के अंत में टंगे काक-भगौड़े को सूंघे. उनके धूसर कोट पर पडी बर्फ की कोई भी सिलवट पिघले और बूँद बन कर झालरदार कालीन पर गिर पड़े - ऐसा नहीं हो सकता.


वहाँ कोई भेड़िया नहीं है. यह तो उसकी पोती है जो कि एक लाल कनटोप, पहन कर आती है. वो चाहती है कि वो चली जाए और उसे छोड़ दे, वो उसे कतई पसंद नहीं करती है, ये एक अजीब सा संदेहास्पद इंसानी व्यवहार है. रिटालिन की प्रतिक्रिया के चलते, जैसे एक झूठ हो, कोई भेड़िया नहीं है.


आवाजें जो घर के सामने एक मोटर के पार्किंग के स्थान पर उसके रुकने से पैदा होती हैं, और फिर कार के दरवाजे के बंद होने की आवाज़.


तीखे ठण्ड के मौसम में नंगे हो रहे रहे जंगल के बीच दादी के घर ने अपनी पहचान को बनाए रखा था. रोशनदान, छत का कोना, धुंधलाया शीशा, खंभे और शहतीर, सत्रह घड़ियों (एक अज्ञात चीड के पेड़ की हाथों से बनी है, एक जापानी देवदार की बनी हाथ से बनी, एक हाथ के बने नर्म लोहे से बनी,एक बैटरी चालित अलार्म घड़ी चेरी की लकड़ी की मेज के ऊपर और मेहमानों के कमरे के बिस्तर के बगल में है, इसकी सुई काले प्लास्टिक की हैं), समाचार पत्र और आग के लिए लकड़ी, फायरप्लेस के साथ ढेर बने रखे हैं.दूर देखने वाले चश्मे में चेन लगी है, मुख्य दरवाजे पर बूट रखे हैं(इनमे से एक जोड़ा पुरुषों के बूट का है, जो ऐसा लगता है कि विषयासक्त शताब्दी से पहले की सदी से खाली रखे हुए है भले ही ये पक्के तौर पर वही सदी थी जो घाव बन गयी, जो भेड़िये की विलक्ष्णता के अलावा सब कुछ बदल गयी), सिलाई का डिब्बा जिसमें सभी आकार के ढेरों बटन थे, कद्दूकस, अंडा काटने वाला, आलू मसलने वाला, खाना पकाने के बर्तन से भरीं दो दराजें(अल्मूनियम या स्टील के), लोहे की देगची, शीशे का जार जिस पर नीले बीड, खिड़की से आ रही रोशनी से दमक रहे थे, पूरा वातानुकूलित, 53 सालों के टैक्स के कागज करीने से बक्से में करके तहखाने में रखे हुए, झाड़ू झाड़न और एक वैक्यूम क्लीनर 22 कैलीबर का हथियार जो तहखाने की सीढियों के नीचे की अल्मारी में रखा है जहाँ दादी माँ अब कभी नहीं पहुंच सकती है. ये सारी चीज़ें मिलकर एक व्यवस्था बन जाती हैं, और उनके सामने जंगली भेड़ियों से भरे जंगल दूर तक पीछा करते हैं.


जब बूढा जीवित था, घड़ी की टिक टिक,शांत और सुरक्षित घर उसे तृप्त रखते थे, और बर्फ की चादर से ढकी दुनिया, जो चौड़ी हो रही दाढ से निकल रही कूकने जैसी आवा़ज़ करती थी, उसे संतुष्ट रखती थी. उसके गर्म हाथ में अपना हाथ रख कर, खिड़की के वितान से बर्फ के तूफान को सफेद तकिये बनाते देखते रहना. दादी माँ के लिए, बर्फ के ढेर से अटी पड़ी जमीन में शाहबतूत के बीज ढूंढने की कोशिश करना, सदाबहार की तीखी पत्ती से घायल होना, और शीतदंश से पीड़ित होना, सब सही था. घर जंगल में इकदम शांतिपूर्ण था, और उसके हाथ अपने दस्ताने में शांत, और खतरे में भी थे ये एक सुरक्षित जगह थी.
बूढे की मौत के बाद, करीब आधी सदी से असुरक्षा सब कुछ खाली किये जा रही थी. पहले की स्थिति मे वापस जा पाना उसके लिये अब संभव नहीं था. दादी भेड़ियों को याद करती थी.


पीछे का दरवाजा थरथरा के खुला, और पोती ने बाहों के बोझ को उतारना शुरु किया. युवा आवाज में एक गीत उभरा.
"भगवान उस बच्चे को आशीर्वाद दे जिसका अपना... ~"


उसकी पुरानी आवाज अब कफ़ से भरी हो गयी है, और दादी माँ बिस्तर पर अपने बदन को एक बेहद गर्म कंबल में लपेटे हुए सिर्फ धुआं उलीचती रहती है. वो बूढे को देखने के लिये अपनी गर्दन घुमाती है, लेकिन कह नही सकती कि वो वहां था.


मौत और हार के बाद भेड़ियों को भगाना बंद हो गया, और मरदाना पोती ने फर्नीचर बाहर कर दिया, गृहयुद्ध से अवकाश प्राप्ति के फ्रेम किये कागजात, 80 साल पुरानी क्रिस्टल की मिठाई की ट्रे और तीन मस्तूलों वाली क्लिपर नौका का लिथोचित्र, साथ ही बेरहमी से बड़े पैमाने पर बनी स्कैंडिनेवियाई गद्देदार कुर्सी जिसके हत्थे को एक एल आकार के पाने में बदल दिया गया था, सबको एक घरेलू सेल लगाकर बेच डाला, और सुई वाली घड़ी को डिजिटल घड़ी से बदल डाला. अभिभावक की गैरहाजिरी में, उसकी रखवाली करने के लिए कोई मतलब नहीं है. भेड़ियों से भरा जंगल दादी माँ के गुजरने के पहले ही विलुप्त हो जाएगा.


पोती, पहले से ही (यह कल ही समझाया गया था) वाई-फाई जैसा कुछ लगा रही थी. वो अदृष्य ज़बान हर जगह पहुंचती है, दीवारों से परे, इलेक्ट्रोमैग्नेटिस्म से सबकुछ चाटती है- सब्जियों से पानी, घड़ी का भीतरी हिस्सा, और दादी माँ की बूढी हड्डियां तक चाट जाती है. ये चाटना इस लिये चाटा जाता है ताकि ये सुनिश्चित हो सके कि वे दुनिया भर में फैली गपशप का हिस्सा है या नहीं. वाई-फाई, लाई-फ़ाई, जंगली आग, उड़ती-आँख और अन्य अपनी तपस्या का भुगतान करने के लिये जूझते रहते हैं.


जब दादी माँ के बाबा ने उनके लिये ये घर बनाया, उनकी दाढी सफेद हो गयी थी, और जब जंगल को छिन्न भिन्न करने के लिये विदेशी प्रेम अड़ियल हो गया, जब उस व्यक्ति ने जवान पेड़ और घने ओक के पेड़ को एक ही तरह से काट कर गिरा दिया, वो भी घड़ी ले आए. घड़ी में समय बीतता गया, और वह लकड़ी काटता गया. पाखंड के झाड़-झंखाड़ से पिछले घावों को इकट्ठा करते हुए कुल्हाड़ी और घड़ी, टिक-टॉक और खटाक-खटाक चलती रही, घाव की जगह पर भट्ठी जलती रही और कालीन से ढंकी, बंद पड़ी दुनिया के हर खूंट को रगड़ती रही. भेड़िया चारों ओर जा-जा कर बर्फ सूंघता रहा, और गौरैया की हड्डियों और उसके नीचे एक इंडियन की हड्डियों को ढूंढ निकालता है. जिस शांति और निश्चिंतता को उनके बाबा ने खोजा था वो वहां शुरु से नहीं थी, बल्कि वो इंसान की बनाई हुई थी, एक नरसंहार और छूत की बीमारी के बाद दबा दी गयी तीखी खामोशी. गर्मी की हरियाली, पंछियों की चूं-चूं, पुराने पेड़ों के गिरने की आवाज़ के कोलाहल में, गर्मी के बहते पानी में आगे जाता, भेड़िये का इंतज़ार करता, मशरूमों की खरपतवार जो छाया बन गयी थी.फिर भी, उस छोटी सी दुनिया के सन्नाटे में वो सदा ही ऐसी थी.


लेकिन अब - इस चिंतातुर, लाल हुई, पोती को अब समय का एहसास हुआ. वाई-फाई, और पत्नी की आँख, सितारों का व्यास जानती है, युवा सितारों की वंशावली, यहाँ तक कि वह कारण भी जिसकी वजह से यहूदी खतना कराते हैं. और उपग्रह, उपग्रह को रात में निर्जन धरातल पर छोड़ कर, कामुक आँखों से हर चीज़ को देखती है. जंगलराज खत्म हो गया है. पत्नी की आँख हर चीज़ को पैकेटों में तराश देती है...या शायद पॉकेटों में (या जानने का कोई तरीका नहीं है कि पोती ने क्या कहा था). घड़ी मूर्खता का एक आभूषण मात्र है, जो टिक-टॉक की आवाज़ करती है, और भेड़िया केवल उसका साथ देता चल सकता है.


माइक्रोवेव बजता है, और लगता है पोती खाने के लिए कुछ पका रही है, शायद सूप. दादी को तब बहुत अच्छा लगता था जब पोती नन्ही थी और लगभग हर चीज़ से विस्मित हो जाती थी. जब वह मैदान से फूल उठाती थी, और मर्द के घुटनों पर सो जाया करती थी, डरावने सपनों के कारण रोते हुए उठ जाया करती थी कि भेड़िया डरावना लग रहा था.
एक अच्छी दादी माँ, पोती को आज के रूप में को पसंद करती. हालांकि, वह एक अच्छी दादी माँ नहीं है. उसका जंगली पत्नी होना भेदिये के स्वभाव का हिस्सा था.एक बेकार पड़े, बूढ़े हो रहे शरीर के बिस्तर के पास से देखते हुए. ये विश्वसनीय कॉलेज जाने वाली लडकी अपना सूप पका रही है.


ट्रे(आइवी लता के पैटर्न के साथ तांबे की बनी) के ऊपर चम्मच बजती है- वो जल्दी से पहुचती है. अभी जहां जिस जगल कोई भी घड़ी नहीं है, वह अजेय है. वह एक पत्नी जैसी नजर डालती है, और उनमें लाली भर लाती है. उस औरत को खुश रखने के लिये कोई भट्ठी नहीं, अल्मारी नहीं, बोर्ड नहीं, आग को कुरेदने वाली छड़ी नहीं, मिट्टी के बर्तन नहीं, मोम नहीं, लोहा नही, सन नहीं, मांस नहीं, क्रीम नहीं, लिंकन डगलस की बहस नहीं. वो चीज़े जो उसे चीजें खुश करतीं हैं वो मोनोसोडियम ग्लूटामेट(भोजन का स्वाद बढाने वाला) और कृत्रिम स्वीट्नर ऐस्पार्टेम, ग्राहकों का समर्थन, रियलिटी टीवी, टेट्रा पैक, डेटाबेस, गैलियम, कृत्रिम स्वीट्नर स्प्लेंडा और कम्प्यूटर से पैदा की गयी तस्वीरें हैं.


समय, जैसा कि हाल के दिनों में ही चलता रहा, ख़ुशी-खुशी चलता जाता है. न दरवाजा खुलने की कोई आवाज़ है, न फर्श पर कदमों की आवाज़ है. केवल पोती का चिकना चेहरा चाँद की तरह आता है, और चम्मच स्टील हो जाती है और कंपन एक बिजली की कौंध जैसा जो बेहद नज़दीक होकर भी अनदेखा जैसा है, जो गाय के पुट्ठे के मीट और लहसुन तथा आलू की महक ढूंढता है.


अगर खरपतवार के साथ जंगल भी बहुत बढ गया होता और पत्नी निगाहों से दूर हो गयी होती, भेड़िया सामने के दरवाजे या घड़ी के आरपार बाहर चला गया होता, सूप देने वाली सजातीय पर अपनी दाढ के साथ कूद पड़ता और उसकी रीढ को एक ही बार में दांतों से कूंच डालता, टैटू की हुई उसकी खाल को फाड़ डालता, और कंबल को खून से भिगो डालता.


दादी माँ चम्मच को पकड़ने के लिये कांपते हुए, अपने होंठ एक बंदर की तरह लटकाती है. कांपते हुए इसे पकड़ती है, सूप की गर्मी और चटपटापन उसके गले के नीचे उतरता है और एक बूंद उसकी ठोढी पर से फिसल पड़ती है.


धूमिल आँखो से, वो अपनी पोती को मुस्काते हुए देखती हैं. और उसकी आवाज़ में गर्मी है. "दादी माँ- आप की आंखें कितनी बड़ी है?"



मूल लेखक- (बेंजामिन रोसेनबाउम)     http://en.wikipedia.org/wiki/Benjamin_Rosenbaum