रविवार, 23 दिसंबर 2012

रेयरेस्ट ऑफ रेयर....


मनीष तिवारी कल प्रेस कांफ्रेंस में कई बार बोले कि गृहमंत्री का बयान पढ़िये जिसमें "रेयरेस्ट ऑफ रेयर" मानते हुये, बलात्कार के इस राजधानिक मामले पर कार्यवाही की जायेगी, वे आगे जोड़ते हैं कि कानून के जानकार यह जानते हैं कि इस वाक्यांश "रेयरेस्ट ऑफ रेयर" का क्या मतलब होता है। मनीष क्या यह बतायेंगे कि...

1. अगर यह "रेयरेस्ट ऑफ रेयर" मामला है जैसा कि गृहमंत्री अपने बयान में(प्रेस को जारी) स्वीकार कर रहे हैं  तो प्रेस कांफ्रेस स्पष्टीकरण के लिये नहीं बल्कि गृहमंत्री और गृहसचिव के इस्तीफे की पुष्टि के लिये बुलायी जानी चाहिये थी।(अगर इस देश का गृहमंत्री "रेयरेस्ट ऑफ रेयर"  मामले की जिम्मेदारी नहीं लेगा तो यूपीए की चीफ को ले लेनी चाहिये, परधनमंत्री तो बेचारु हैं।)

2. कानून के जानकार, जानकर क्या करेंगे ....मामला आम आदमी का है, बात उसके समझ में आनी चाहिये।

3. अगर किसी केन्द्रीय मंत्री या किसी भी राजनीतिक दल के महत्वपूर्ण नेता की बेटी के साथ ऐसा होता तो क्या कार्यवाही की जाती? 

4.आखिर वह कौन सा हादसा होगा जिस पर संसद का विशेष सत्र बुलाकर एक विशेष अध्यादेश जारी किया जायेगा। 

(अगर देश की आधी जनसंख्या के पीड़ित होने पर यह नहीं हो सकता है तो भारत द्वार-इंडिया गेट, पर युवा सही ही कह रहे थे कि "ये सरकार निकम्मी है, सोनिया जिसकी मम्मी है।", क्योंकि अगर चे, मम्मी और उनके कुनबे की सुरक्षा पर कुछ बोला तो मम्मी के चाटुकार उनकी सुरक्षा के लिये परिवार के बलिदानों की कहानियों की झड़ी लगा देंगे।)

5.आखिर कब तक हम मैंगो पीपुल इनके बलिदानों के पुरस्कार स्वरूप अपना बलिदान कराते रहेंगे। कल की प्रेस कॉन्फ्रेंस में किसी पत्रकार ने यह क्यों नहीं पूछा कि मनीष, शिंदे, आरपीएन..वगैरह-वगैरह अपनी सुरक्षा का बोझ देश से कम करने के बारे में क्या सोच रहे हैं, जिससे कि जनता की सुरक्षा बढ़ायी जा सके। हमारे किसी पत्रकार ने उनसे यह नहीं पूछा कि "रेयरेस्ट ऑफ रेयर" मामले उनकी यानी, यूपीए चीफ, परधनमंत्री, और मंत्रिमंडल की कोई नैतिक जिम्मेदारी बनती है या सब घोल कर पी गये।

(कुछ बरस पहले देश के मंत्री की बिटिया को अगवा करके आतंकियों ने अपने भाइयों को छुड़वाया था, तब तो निर्णय बड़ी जल्दी ले लिया गया। यह प्रेस कांफ्रेस करने में सरकार को पांच दिन लग गये। प्रेस कांफ्रेस करने वाले कह रहे थे उनकी भी बेटियां हैं...क्या उनकी बेटियां बस में सफर करती हैं...क्या उनकी बेटियां भारत द्वार, रायसीना आदि जगहों पर थीं? हमें इन सुविधासंपन्न लोगो से किसी भी तरह की कोई भी हमदर्दी नहीं रखनी चाहिये।)

6. कि हमें क्या करना चाहिये....।

वैसे सुन लीजिये..झारखंड से खबर आ रही है कि ...पांच छिछोरों को लोगों ने पीट-पीट कर मार डाला, तो सीख यह है कि जो छेड़खानी करे ...उसे वहीं पर धर दबोचिये...इंतज़ार मत करिये। 

(मुझे याद है जब हम छोटे थे तो हमारे इलाके के एक दरोगा किसी छिछोरे को पकड़ते थे तो उसके सर पर चौराहा बनवा देते थे (मानवाधिकार वाले तो उनको मार ही डालते) और किसी प्रभावशाली का फोन के आने तक उसकी कायदे से पूजा कर देते थे...जिससे कि ऊपर वालों को यह कह सकें कि साहब हमको क्या पता कि जनाब आपके सुपुत्र या रिश्तेदार हैं...हमने तो बस खुजली मिटा ली...।)

.......कहीं सरकार और उसकी व्यवस्था मैंगो से यह अपेक्षा तो नहीं कर रही है कि मैंगो, कानून अपने हाथ में ले लें......

.....वैसे हम आम जन को एक बात का ध्यान रखना चाहिये कि कोई भी व्यक्ति जो छेड़खानी भी कर रहा हो, उसकी वहीं धुनाई कर दीजिये...इंतज़ार मत करिये...क्योंकि न्याय में हो रही देरी (पीड़ित का इंतज़ार) वह मुख्य कारण है जिससे शोषण करने वाले का साहस बढ़ता है।जब एक बार जूता-लात खा कर छिछोरे का पेट भर जायेगा तो अगली बार कम से कम सोचेगा जरूर कि छिछोरपना करें या नहीं....






गुरुवार, 6 दिसंबर 2012

FDI की बहस से निकले कुछ भूत......


कल आनंद शर्मा को संसद में यह कहते सुन कर बड़ा अजीब लगा कि हल्दीराम भी अपने स्टोर्स बाहर खोल रहा है, इसलिये हमें भी दूसरों को मौका देना चाहिये। कुछ ऐसा लगा कि मानो कोई हमे चुटकी काटने दे रहा है तो हमें उसको अपने हाथ काटने की इजाज़त दे देनी चाहिये। आनंद शर्मा जैसे लोग चरण वंदना करके क्या बन सकते हैं इसका उदाहरण आपके सामने है। हम समझ रहे थे आनंद शर्मा भारत सरकार के मंत्री हैं, लेकिन उनके इस तर्क से तो लगता है कि वे कम से कम भारत सरकार के तो मंत्री नहीं है, आने वाले समय में पता चलेगा कि वे किस देश के मंत्री हैं। कपिल सिब्बल कह रहे थे कि सिर्फ 18 शहरों में किराना स्टोर खुलेंगे, और बात ऐसे हो रही है मानो पूरे देश में इनकी बाढ़ आ जायेगी। तो कपिल साहेब ये 18 शहर देश के बाहर कर दिये आपने, कल आप यह तो नहीं कहेंगे न कि दिल्ली में चांदनी चौक में आतंकवादियों ने बम फोड़ा है इसलिये सारे देश को चिंतित होने की जरूरत नहीं है। क्योंकि आपने दिल्ली और विशेष रूप से चांदनी चौक का निर्यात कर दिया है। सिब्बल की बाते सुन कर मुझे इतिहास की किताब के वे शब्द याद आ गया जब अंग्रेजों ने बंगाल, अवध आदि के नवाब से सीमित जगहों पर लगान वसूली की अनुमति मांगी थी....अंत क्या हुआ सबको मालूम है।

हमारे देश के ये मंत्री जितना मुँह खोलते है, उनकी औकात उतनी ही सामने आती जाती है। संसद की गरिमा पर लेक्चर देने वाला आदमी, विपक्षियों को जानवर कहता है। अन्ना को भगोड़ा कहने वाला मंत्री बन जाता है। देश को बेच डालने के लिये कुतर्क देने वाला वाणिज्य मंत्री बना दिया जाता है। ज़बान के इतने गंदे लोग भीतर से कितने गंदे होंगे इस बात का आप अंदाज़ ही लगा सकते हैं। कपिल सिब्बल के साथ ऐसे कितने ही किस्से मिल जायेंगे। इस पर तुर्रा ये कि ये हमारे समाज से आये हैं।


सरकार को FDI की कितनी जल्दी है इसकी बानगी एक बयान से और आती है जब आनंद शर्मा कहते है कि FDI पर काफी बहस हो चुकी है काफी समय बीत चुका है। तो भईया वॉलमार्ट के प्रवक्ता जी कुपया उन बिलो पर भी निगाह मारिये जो पचीस-पचीस साल से संसद की धूल फांक रहे हैं, जैसे लोकपाल, महिला आरक्षण और न जाने कितने। आनंद शर्मा वॉलमार्ट का समर्थन करते हुये अपनी कुहनी के बल बैठ कर संसद में कह गये कि "कंसेंसेस का मतलब आम सहमति है, सर्व सहमति नहीं...एंड इफ यू हैव टू वेट फॉर यूनानिमिटी, देन यू विल हैव टू वेट टिल एटर्निटी" Consensus ka matlab aam sehmati, sarva sammati nahi..If you have to wait for unanimity, you wait till eternity: Anand Sharma


तो प्रभु थोड़ा प्रकाश इधर भी डालिये, यह तथ्य भी थोड़ा स्पष्ट कर दीजिये कि महिला आरक्षण बिल पर आम सहमति का क्या मतलब है....मेरा ख्याल है वहां पर आम सहमति सर्व सहमति ही है...क्योंकि उसे "एटर्निटी" तक लटकाना है। इन जैसे बिलों पर सरकार को कतई जल्दी नहीं है, क्योंकि इनसे धनागमन नहीं जुड़ा है? ये कमअकल, इतना नहीं समझते कि अमरीका जैसे मुल्क सिर्फ और सिर्फ अपना भला देखते हैं और उनको आपके भाड़ मे जाने की भी चिन्ता नहीं है। वैसे मुझे तो लगता है कि ये खूब समझते हैं क्योंकि ये भी सोचते अमरीका की ही तरह हैं.....सिर्फ अपना भला देखो, देश का भला देखने को बहुत सारे लोग हैं।

आइये इनके बंधुओं और सखाओं पर एक दृष्टिपात कर ले....अर्थात...लालू, मालू, बहनालू और करुणालू....एक चारे का मारा, दूसरा अधिक कमाई का मारा, तीसरी पर घोटालों की तलवार, चौथा घोटालेबाजों के खानदान का मुखिया। इन चारों का ईमान सीबीआई के पास गिरवी है। इधर सीबीआई...आयी और इन सबकी धोती खुल जाती है। बहाना बचता है सांप्रदायिकता। बड़ी अजीब सी बात है धर्म और जात के नाम पर वोट मांगने वाले और अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों का डर दिखाने वाले खुद को सेक्युलर कहते हैं। और उनको वोट देने वाला तबका इतने बरसो में नहीं जान पाया कि असली सांप्रदायिक कौन है। खैर वो भी समझेगा...। और फिर यहां FDI पर चर्चा के समय आप विरोध करते हैं लेकिन जब निर्णय लेने की बारी आती है तो दुम दबा के भाग लेते है, क्योंकि आपके हाथ तो दबे हैं। आप लोगों के इस निर्णय पर कोई भी तर्क टिक नहीं सकता। इन चारों ने सरकार की नाक नहीं बचायी है, इन्होने अपनी जान बचायी है।

सारांश यह है कि चाहे FDI हो या CBI सरकार की अपनी जिद है, क्योंकि सरकार के कर्ताधर्ता अपने तक सीमित हैं और इलेक्शन को वोटर मैनेजमेंट से अधिक कुछ नहीं समझते। उनके लिये लोकतंत्र एक प्रबंधन है जिसे हर पांच साल पर सेट किया जाता है। उनके लिये राजनीति एक पेशा है जो कमाई करने के लिये अपनाया जाता है।


मंगलवार, 13 नवंबर 2012

अब तो छोड़ो...


दीन हीन और याचक बन कर, साबित क्या करना है तुमको?
उठों गर्व से, लड़ो तो तम से, लड़ कर मरना बेहतर है।
सदियों से तुम दबे रहे, तो वर्तमान को कोसोगे?
या फिर इसी वर्तमान के सीने पर रण छेड़ोगे?
नाम तुम्हारा ले ले कर, पीट रहे जो छाती हैं,
सबका अपना स्वार्थ लगा है, सबके पोते नाती हैं।
सत्ता की वे चाट मलाई, छुरी पीठ पर घोप रहे हैं,
नाम व्यवस्था का लेकर के, खाल तुम्हारी खीच रहे हैं।
कब समझोगे, अब न समझे, तो झुंड बना ले जायेंगे,
अब तक जो कुछ बचा रहा है, वो मिल बांट के खायेंगे।
फर्क नहीं पड़ता इससे, कि तुम नर हो या फिर नारी हो,
गूंज उठी है रणभेरी अब, समय बड़ा ही भारी है।
साम, दाम हो दंड, भेद हो, कोई भी तरकीब चुनो,
अपना तुम अब लक्ष्य चुनो, कोई तो हथियार चुनो।

शुक्रवार, 2 नवंबर 2012

दुराग्रह



एक चश्मा है, टूटा-फूटा ही सही अपना है।
जिसे पहन मैं पुरजोर वक़ालत करता हूँ
लोग कुछ भी कहें मैं पानी को आग कहता हूँ
और इसे साबित करने को
एंजिल को खुदा कहता हूँ
कुंए में रहता हूँ, इसे ही मैं समुंदर कहता हूँ
यहीं से मैं आकाश देख लिया करता हूँ
तारे भी गिन लेता हूँ, आकाश माप लिया करता हूँ
मैं जो कहता हूँ वो जोर-जोर से कहता हूँ
काला है तो हुआ करे, उसको मैं लाल लाल करता हूँ,
मेरा जो फलसफा है उसको मैं आलातरीन कहता हूँ
तुम कुछ भी कहो उसे मैं बकवास ही कहता हूँ।
तुम मेरे साथ हो तो मैं तुमको प्यार भी करता हूँ
लगाया दिमाग तो दांत काट लेता हूँ
मरा नहीं हूँ, झुका भी नहीं करता हूँ।
क्या हुआ जो उकड़ूँ बना बैठा हूँ।
सावन का अंधा हूँ पर लाल-लाल लखता हूँ।
खुलेपन से नफरत है, सो दीवारें खड़ा करता हूँ।
न मानो तुम, नफरत करो,
मैं तो मनवाने को विचार आयात किया करता हूँ।
भूख का दिखा कर डर, उन्हें फुसलाकर,
रक्तबीजों को भी अधिकार (?) दिला देता हूँ।
खून के रंग से है प्यार मुझे,
इसलिये समझ लो मैं क्या-क्या नहीं किया करता हूँ।

रविवार, 28 अक्तूबर 2012

मजीद मेमन और नैतिकता की लचीली परिभाषा...


सुप्रभात...

आप लोगों को नही लगता कि कई सारे वकीलों के राजनीति में अच्छे पदों पर काबिज़ हो जाने से राजनीतिक परिदृष्य अदालती अधिक लगता है। अधिकांश राजनेता जो विभिन्न चैनलों पर बहसों में हिस्सा ले रहे हैं उनकी बाते ऐसे तर्कों से भरी होती हैं जो आम आदमी की समझ से परे होती हैं। कल माजिद मेमन साहब, 'टाइम्स नाव' टीवी चैनल पर कुमार विश्वास जी को समझा रहे थे कि क्यों गडकरी जी पर प्रिवेन्शन ऑफ करप्शन ऐक्ट लागू नहीं होता।
मेरी समझ में नहीं आता कि राजनीति वकालत के पेशे में घुस गयी है या वकालत राजनीति के पेशे में, मेमन साहब समझा रहे थे कि नैतिकता और शुचिता के मायने लचीले हैं, अर्थात समय और परिस्थिति के साथ बदलते हैं।
बचपन से हमने तो सीखा है कि सत्य वह है जो हर परिस्थिति और देश काल में सही है, नैतिकता वह है जो जो हर परिस्थिति और देश काल में नैतिक है लेकिन अपनी सुविधा से इनकी परिभाषाओं को गढ़ना अवश्य ही ऑक्सफोर्ड और केम्ब्रिज की पढ़ाया गया होगा। हमारे देश में तो हमारे गुरुजनों ने यही सिखाया था कि बेटा ये चीज़े काल और समय से परे होती हैं।

कहीं माजिद मेमन साहब का यह कहना तो नहीं है कि उस समय के अनुसार पैगम्बरों ने जो नैतिक मानक स्थापित किये और धार्मिक किताबों में लिखा, वे अब बेमानी हैं और उनका पालन समीचीन नहीं है। वे किताबों के लिये ठीक हैं, उनका पालन करना अब समयानुकूल नहीं है। कहीं मिजिद साहब यह तो नहीं कहना चाहते कि रिश्ते भी समय और परिस्थितियों के अनुसार बदलते रहते हैं, क्योंकि अगर माँ-बाप इस फलसफे के हिमायती होते तो माजिद साहब जैसे लोग तो जवानी का नज़ारा ही न कर पाते, और क्या यही बात वे अपने बच्चों को भी सिखा रहे हैं। 

यहां पर यह दलील नहीं दी जा सकती कि, नेताओं के चरित्र और नैतिकता पर की जा रही चर्चा का परिपेक्ष्य(कॉन्टेक्स्ट) दूसरा है क्योंकि अगर कोई यह कहता है कि सत्य, नैतिकता और शुचिता मेरी सुविधा के अनुसार चलते हैं तो उसको किसी ऐसे समाज को खोज लेना चाहिये जहां पर उसकी इस दलील को सही माना जा सके। जो बात हमारे आपके घर परिवार के लिये सही है वही समाज, गाँव, कस्बे, तहसील, जिले, प्रदेश और देश के लिये सही है। 
एक वकील या कोई भी पेशेवर जब राजनीति में आता है तो जनता, समाज और देश की सेवा के लिये आता है और उसका चरित्र (सर्वकालीन), उसकी नैतिकता (सर्वकालीन) और ईमानदारी (सर्वकालीन) आम जनता, समाज और देश के लिये महत्वपूर्ण है। जब वह नेता बनता है तो उसकी जिम्मेदारी इसलिये भी बढ़ जाती है कि अब समाज उसकी ओर आशा भरी निगाहों से देखेगा, उसका अनुसरण करेगा। लेकिन अगर वही वकील या पेशेवर से राजनीतिज्ञ बने नेता यह भूल जायें कि उसके कर्त्वय क्या हैं और सिर्फ अधिकारों की बात करें और दुहाई दे कि समाज का हिस्सा हूँ समाज जैसा ही दिखता हूँ, मेरी नैतिकता और शुचिता देशकाल के अनुसार बदलती है तो फिर तो इसका मतलब हुआ कि कल को वह देश को बेच खायेगा, क्योंकि कल को उसकी बदली हुई नैतिकता कहेगी कि 'देश को बेच खाना नैतिकता है, और तो और वो कल को अदालत में साबित भी कर देगा कि यह सही है'

पता नहीं ये लोग, नेता, वकील, कारोबारी, अधिकारी देश को क्या समझते हैं, और ये कब सुधरेंगे? क्या तरीका हो सकता है इनके नेक्सस को तोड़ने का....क्रांति-व्रांति की बात मत करिये, क्योंकि जिन जगहों मे पिछले 1000 सालों में क्रांतियां हुई हैं...वे स्वर्ग नहीं बन गये हैं....हाँ वहां के निवासी स्वर्गवासी जरूर बन गये हैं। 

।।जय हो।।