दीन हीन और याचक बन कर, साबित क्या करना है तुमको?
उठों गर्व से, लड़ो तो तम से, लड़ कर मरना बेहतर
है।
सदियों से तुम दबे रहे, तो वर्तमान को कोसोगे?
या फिर इसी वर्तमान के सीने पर रण छेड़ोगे?
नाम तुम्हारा ले ले कर, पीट
रहे जो छाती हैं,
सबका अपना स्वार्थ लगा
है, सबके पोते नाती हैं।
सत्ता की वे चाट मलाई, छुरी
पीठ पर घोप रहे हैं,
नाम व्यवस्था का लेकर
के, खाल तुम्हारी खीच रहे हैं।
कब समझोगे, अब न समझे, तो
झुंड बना ले जायेंगे,
अब तक जो कुछ बचा रहा
है, वो मिल बांट के खायेंगे।
फर्क नहीं पड़ता इससे,
कि तुम नर हो या फिर नारी हो,
गूंज उठी है रणभेरी अब, समय
बड़ा ही भारी है।
साम, दाम हो दंड, भेद हो,
कोई भी तरकीब चुनो,
अपना
तुम अब लक्ष्य चुनो, कोई तो हथियार चुनो।
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