सोमवार, 4 अप्रैल 2016

क्यों नहीं हो सकी और क्यों संभव नहीं है भारत में वाम क्रांति...



मेहनत, व्यापार, जोखिम व लाभ-हानि..ये चार ऐसे शब्द हैं जिनको जीवन में उतारने वाला किसान व व्यापारी बनता है, उद्यमी बनता है और अंततः सफल हो पूंजी का निर्माण करता है। लेकिन भारतीय वामपंथियों और समाजवादियों को इन चारों (मेहनत, व्यापार, जोखिम व लाभ-हानि) अल्फाज़ों से नफरत हैं। उनको नफरत इसलिए हैं कि वे मैकाले पद्धति के पढ़े-लिखे और वेतनभोगी होना पसंद करते हैं। वे किसान, मजदूर नहीं होना चाहते...वो उनके लिए आवाज़ उठाने वाले बनना चाहते हैं। वो जानते हैं कि किसान या व्यापारी बनने का मतलब है - बरस-दर-बरस सर्वस्व दांव पर लगाना...लेकिन इतना बड़ा जोखिम और साहस करने योग्य होते तो वही न कर रहे होते न?
ये बस अपने भय से आपको डराते हैं, इनका भय भी एकमात्र यह है कि देश-समाज में वह पक्ष हावी न हो जाए जो इन कामचोरों और गैरजिम्मेदार लोगों को काम करने और मेहनत करने पर मजबूर कर दे। जो इनको इनके कंफर्ट ज़ोन से बहार घसीट कर परेशान न कर दे। ये धर्म और दक्षिणपंथ को अफीम और फासिस्ट बता कर उनका भय दिखा कर खुद को स्थापित करते है। ये आज़ादी की मांग करके लोगों को सब्जबाग दिखा कर खुद को स्थापित करते हैं और जब सत्ता में आते हैं तो अपने चारों ओर दीवारें खड़ी कर लेते हैं और लग जाते हैं उस सुंदर समाज के प्रचार में जो दीवार के उस ओर होना बताया जाता तो है, लेकिन वास्तविकता में होता नहीं है। यही कारण है कि पूरी दुनिया का एक भी ऐसा वामपंथी विचारधारा वाला देश न हुआ जो दीवारें गिरने पर अंदर से लुटा पिटा न निकला। वहां पर लोगों को रोटियों के लिए भी लाइन लगाए, भुखमरी और गरीबी से मरता दुनिया ने देखा है।

आखिर वहां पर भी धर्म और दक्षिणपंथ का भय दिखा कर ही सत्ता हासिल की गयी थी....किसके लिए? सर्वहारा के लिए, आज़ादी के लिए (अरे वही कन्हैया टाइप्स) और अंततः क्या हुआ... स्टालिन, चाऊशेस्कू वगैरह पैदा हुए जो और बड़े आदमखोर थे (तो अब तो उदाहरण भी नहीं कि बता सकें कि देखो वो रहा हमारा मॉडल जो सफल है)। इसीलिए ये बस पैदा होने से मरने तक आलूचना बेचते आई मीन आलोचना करते रहते हैं।


ये दरअसल उस कला आलोचक जैसे होते हैं जो आलोचना तो खूब करता है लेकिन जब ब्रश पकड़ा दिया जाता है तो सारी आलोचना फना हो जाती है। ये आलोचनाएं तो खूब करेंगे और जब आप इनसे संशोधित योजना की बात करेंगे तो ये बगले झांकने लगेंगे। इनके पास दरअसल कोई सफल योजना जैसी चीज है ही नहीं। ये तो बस क्रांति के हवा-हवाई महल और समानता के गीत गाते स्वप्नजीवी होते हैं। जिनका हकीकत से बस इतना वास्ता होता है कि धंधा-पानी बरकरार रहे।



दिल्ली व अन्य राजधानियों में बैठे कर क्रांति की दंड-बैठक पेलने वाले अधिकांश वामियों और समाजवादियों की पृष्ठभूमि या तो ग्रामीण होगी या सफल वामी (स्थापित व कमाऊ वामी) परिवार की मिलेगी। अभी हाल में दिल्ली में आज़ादी के लिए स्यापा पीटने वाले लोगों की पारिवारिक पृष्ठभूमि यही है। इनको मुफ्त आवास, भोजन और नशा-पत्ती मिल रहा है तो माँ-बाप के पास जा कर खटने की जरूरत किसे है? 



ब ऐसे लोग अगर किसी देश में समाज में परिवर्तन और क्रांति का बीड़ा उठाएं होंगे तो 90 क्या, 900 क्या, 9000 बरस नहीं होनी क्रांति क्योंकि कारण साफ है। ये चाहते ही नहीं समाज में परिवर्तन ये तो बस अपने आरामतलब, गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार और कामचोरपने वाली जिंदगी को जीते रहना चाहते हैं। 

मजे की बात तो यह है कि ईश्वर को न मानने वाले वामपंथी, प्रकृति में भी यकीन नहीं करते हैं। क्रांति की इनकी प्रिय अवधारणा - स्पॉन्टेनियस है। वह परजीवी क्रांति-बेल जो जिस पेड़ पर चढ़ जाए उसे नष्ट कर दे। JNU इसका एक ज्वलंत उदाहरण है। जिस विश्वविद्यालय को 'राष्ट्रीय एकता और अखंडता' (जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय अधिनियम 1966) को बढ़ावा देने के उद्देश्य से बनाया गया उसी का नाश करने पर तुले हैं। काश्मीर को स्वतंत्र कराने के लिए सर्वस्व निछावर करने वाले ये लोग दूसरी ओर राष्ट्र की अवधारणा को ही नकारते हैं। 

इतना अधिक कन्फ्यूज है भारतीय वामपंथ, कि तय ही नही कर पाता किस फाइनांसर के साथ खड़े हों। वो कभी कांग्रेस से वित्तपोषित होता दिखता है तो कभी सरहद पार से। भारत में अपनी पैदाइश से लेकर आज तक इस विचारधारा ने जितनी वल्दियत बदली है उतनी बार तो सांप आपने जीवन में केचुंल नहीं उतारता और गिरगिट रंग नहीं बदलता। कहने का तात्पर्य यह है कि इनको सिर्फ और सिर्फ अपने से मतलब है। अपने से अर्थ है - खुद से (विचारधारा समूह से नही)। ये लाभ के लिए आपस में भी कुत्ता-घसीटी कर डालते हैं। जलेस और प्रलेस के झगड़े और उससे भी पहले वामपंथियों का आपसी विभाजन इसके कुछ एक उदाहरण हैं। ये विशुद्ध रूप से अपने तक सीमित लोगों का एक समूह है जो अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए ही एकजुट होता है और किसी के भी साथ खड़ा सकता है, किसी के भी साथ।

पहली आज़ादी तो वे खुद से तय कर निकले हैं, दुखी व गरीब माँ बाप से आजादी, उनकी जिम्मेदारी से आजादी। और ये वो लोग हैं जो समाज में क्रांति की जिम्मेदारी उठाने निकाले हैं। जो स्थापित परिवारों से हैं उनके लिए तो यह पेशा है। फटहा झोला लटका कर खुद के आरामतलब, गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार (सामाजिक संबंधों से इसीलिए भागते हैं, यू नो लिव इन रिलेशन वगैरह) और कामचोरपने को क्रांति के लबादे से ढ़ंक कर रखना। ये दोनो ही वे लोग है जो हसिया या हथौड़ा दोनो ही उठा कर आठ घंटे काम कर लें तो हसिया और हथौड़ा दोनो शर्म से धरती में धंस जाएं।


ये दरअसल भिन्न-भिन्न कालखंडों में हरामखोरी की जीवनशैली के हामी लोगों का एक कुनबा भर है (70 के दशक के हिप्पियों जैसे)। 

सो जिनका लक्ष्य ही क्रांति नहीं है वो क्या करेंगे क्रांति?