कल चैनलों पर यायावरी करते हुए एनडीटीवी पर अभिज्ञान जी को देखा, साथ में टंडन जी (अटल जी के मीडिया सलाहकार) को देखकर सुखद आश्चर्य हुआ, सो रुक कर सुनने लगा।
10-15 मिनट में ही अभिज्ञान की लाचारगी पर तरस आने लगा - विषय था - भारत रत्न मिलने पर अटल जी के गुणों का विश्लेषण..अभिज्ञान अपनी पीड़ा को परदे में लेते हुए बिना नाम लिये अटल जी की तुलना मोदी जी से करने लगे कि.."एक अटल जी थे और एक आज के नेता है।" टंडन जी ने लगभग झिड़कते हुए (अटल जी के स्तर से वह झिड़कना ही था) कहा कि - अटल जी की मोदी जी से तुलना करने से पहले एक किस्सा सुन लीजिए..."प्रभाष जोशी जी उस दौरान जनसत्ता के संपादक थे जब अटल जी पीएम थे और जोशी जी एक साप्ताहिक कॉलम लिखते थे - 'स्वयंसेवी प्रधानमंत्री' और मजाल है कि अटल जी उस कॉलम को पढ़ना भूल जाए (ध्यान रहे कि अटल जी और जोशी जी घनिष्ठ मित्र थे)। जोशी जी का पत्रकारिता में क्या कद था यह बताने की जरूरत किसी को नहीं है। अटल जी उनको इसलिए पढ़ते थे क्योंकि वह वादविहीन आलोचना थी, तटस्थ और रचनात्मक थी। आप खुल कर नाम लीजिए कि आप मोदी जी की तुलना अटल जी से कर रहे हैं। ऐसे में जिस शख्स को 40 बरस मीडिया का प्यार मिला हो उसकी तुलना ऐसे शख्स से करना जिसे मीडिया ने 12 बरस तक बायस्ड हो कर किनारे लगाने का प्रयास किया और नतमस्तक हो गया (मीडिया का आज का सुर देख लीजिए)।"
माफ करिएगा लेकिन... क्या प्रभाष जी जैसी पत्रकारिता का पसंगा भर भी करने वाला कोई पत्रकार आज मीडिया में है?
पत्रकारिता में प्रभाष जी के चेले उसी तरह से हो गए हैं जैसे राजनीति में जेपी के चेले। उनमें इस बात की होड़ लगी रहती है कि वे कैसे सिद्ध करें कि वे प्रभाष जी के कितने नज़दीक और प्यारे थे...लेकिन इनमें से कोई भी आत्ममुग्धता और समझौतों से मुक्त नहीं हैं। "मैने जीवन में पेश के लिए कभी किसी तरह समझौता नहीं किया" - जब कोई पत्रकार, संपादक ऐसा बोलता है तो सुनने पढ़ने वाला हर शख्स जानता है कि सामने वाला क्या कहना चाहता है। इन चेलों को लगता है कि प्रभाष जी को लोग जानते नहीं है। उन्होने कभी भी ऐसा दावा नहीं किया, क्योंकि उनको ऐसा करने की जरूरत ही नही थी, उनके कर्म उनकी लेखनी बोलती थी।
ऐसे में मेरे मन में सवाल पैदा हुआ कि अभिज्ञान मोदी जी से अटल जी जैसा बनने की अपेक्षा करते हुए, यह अपेक्षा क्यो करने लगे कि उनको प्रभाष जोशी जी जैसा समझा जाए। क्या तुलना है? है भी या नहीं? पिछले कुछ बरसों में राजनीति और राजनीतिज्ञों के प्रति उपजी नकारात्मकता का श्रेय लेने को यह मीडिया तैयार नहीं है लेकिन प्रबल और मजबूत राजनीतिक नेतृत्व के उभार के कारण युवाओं में फिर से राजनीति के प्रति उभरती सकारात्मकता को लेने का श्रेय इस मीडिया को जरूर चाहिए। ऐसे गैरजिम्मेदार मीडिया की स्थिति हमारे देश के बड़े बाबुओं सरीखी है जो अधिकारों की तो बात करता है लेकिन उत्तरदायित्व से भागता है। फिर तुलना कैसी, किसकी और क्यों? सिर्फ कार्यक्रम बनाकर अपना चेहरा चमकाने के लिए। क्या मज़ाक है!
जब आप तुलना करते हैं तो उसका आधार क्या होता है, या बस 30 मिनट के कार्यक्रम को निपटाने बैठ जाते हैं। अंत करते हुए अभिज्ञान कहते हैं कि अटल जी उनको प्यार से 'अभिज्ञान शांकुतल' बोलते थे। बोलेंगे ही...लॉलीपॉप बच्चों को दिया जाता है, उनको पता है कि सामने वाला किस टॉफी को पकड़ कर ज़िंदगी भर चूसरा चुगलता, मगन रहेगा। जब आप जैसे पत्रकारों से भरा दृष्य मीडिया- 'राजधर्म निभाएं' जैसे वाक्य को बोलते समय अटल जी के मंतव्य को भाव को और संदेश को न समझ सका और अपने मन की व्याख्या को लेकर कल का थूका आज चाट रहा है तो समझा जा सकता है तुलना और तुनलात्मकता की कितनी समझ इस मीडिया को है।
यह तो एक उदाहरण था, इसी तरह के विश्लेषण कमोबेश हर चैनल पर थे...हिन्दी, अंग्रेज़ी दोनो!
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