शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2016

भारतीय समाज में व्याप्त भेदभाव

आज के भारतीय समाज में व्याप्त भेदभाव के मसले पर अधिकांश लोकप्रिय दलित चिंतक आपको टकराव की ओर ले जाते दिखेंगे, लेकिन समाज में व्याप्त भेदभाव पर सकारात्मक सुझाव और सुधार की पहल करता कोई न दिखेगा। हमारे आपके दर्शनार्थ इन सभी के आदर्श, बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर या मान्यवर कांशीराम दिखेंगे, लेकिन कोई उनके जीवन संघर्ष को जीने की इच्छा रखता न दिखेगा।
मेरा मानना है कि इसका एक ही कारण है। समाज सुधार एक प्रकार की साधना है जो पूरा समर्पण मांगती है, लेकिन जब इसे व्यवसाय बनाने की लालसा हो तो जो लालसा होगी वही सिद्ध होगी न?
सरल सी बात नहीं समझ आती हम लोगों को कि समाज के किसी तबके को समाप्त करके इस समस्या का हल संभव नहीं है। समाज के हर हिस्से को इसके लिए जागृत होना होगा। इस समस्या से संघर्ष नहीं, समग्र सुधार की भावना से ही निपटा जा सकता है। लेकिन ये दलित चिंतक जानते हैं कि अगर समाज की समझ में यह बात आ गयी तो इनकी रोजी रोटी ही बंद हो जाएगी। इनके इस कुचक्र को समझना होगा और इसे भेदना होगा। हमें समझना होगा कि समाज सुधार में नेतृत्व का काम समाज को तैयार करना होता है, समाज में भेद पैदा करना नहीं। सो उत्तरदायित्व हमारा है। मुझे तो यह समझ आता है कि जिस दिन कर्म के आधार पर समाज में कर्म के महत्व की पुनःस्थापना की शुरुआत होगी, उस दिन से समाज में फैले इस भेदभाव को सुधारने की ओर हम पहला कदम बढ़ा देंगे।
दरअसल यह या किसी भी तरह का भेदभाव एक सड़ांध भरा नाला हैं जो समाज के बीचो-बीच बह रहा है, उसके लिए हर घर जा कर घरों के मुखियाओं को समझाना होगा कि इस नाले में अपने घर के हिस्से की सड़ांध डालना बंद करें और यह एक दो या दस बरस में होने वाला काम नहीं है। घरों तक जाने की बात इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि देश की मूल इकाई घर-परिवार ही हैं। 
जबकि आज के अधिकांश दलित चिंतक तो बस इस नाले से अपने हिस्से की खाद और गैस को बेच कर ऐश कर रहे हैं।
सो सारांश यह है कि हम इस समस्या के समाधान के लिए अपने-अपने हिस्से की जिम्मेदारी का निर्वहन करें तब ही इस समस्या का सामना किया जा सकता है।


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