रविवार, 24 अगस्त 2014

किरांति के वास्ते.....

चेहरा बना है लाल, किरांति के वास्ते,
उनका बढ़ा है बाल, किरांति के वास्ते।
दाढ़ी में है ख़िजाब, किरांति के वास्ते,
झोले में है हथियार, किरांति के वास्ते।
गुदड़ी के बने लाल, किरांति के वास्ते,
मुर्गे भी हैं हलाल, किरांति के वास्ते।
उंगली में है सिगार, किरांति के वास्ते,
हाथों में है गिलास, किरांति के वास्ते।
वोटर किया आयात, किरांति के वास्ते,
मइया को मारी लात, किरांति के वास्ते।
अनुदान लिया खाय, किरांति के वास्ते,
खा करके मारी लात, किरांति के वास्ते।
धरना है कारोबार, किरांति के वास्ते,
कुर्सी की है दरकार, किरांति के वास्ते।
कच्छे में रखा रुमाल, किरांति के वास्ते,
गिरगिट सा है जमाल, किरांति के वास्ते।
कारखाने कब्र हो गए, किरांति के वास्ते,
मजदूर दफन हो गए, किरांति के वास्ते।
क्या-क्या करोगे यार, किरांति के वास्ते,
रस्ते किए सब बंद, किरांति के वास्ते।
भेड़िए ने पहनी खाल, किरांति के वास्ते,
कब तक चलेगा स्वांग, किरांति के वास्ते?  - आशु वाणी 

रविवार, 26 मई 2013

पत्नी की आँख, भेड़िये की आँख(वाईफ आई, वुल्फ आई), लेखक - बेंजामिन रोसेनबाउम

मेरा पहला और अंतिम साहित्य अनुवाद....

लड़ाई नदी के उस पार और जंगल से बाहर की ओर मुड गयी.गौरैयों की लड़ाई पेड़ और फर के बीच की तंग जगहों से निकल कर सिकु़डती सी बाहर आ गयी. एक सर्द बादल, एक भेड़िये की लम्बी आह, भोर में पक कर फूटने को तैयार जगमगाती ओस की बूँदें, वे फूट कर धुंध में मिल रही हैं.

घड़ी समय के साथ चलती जा रही है, दादी माँ रजाई में लिपटी सो रही है, उन दीवारों के बीच, जो नीचे गिराई नहीं जा सकती, सिमटी हुई हवा में गहरी साँसे भर रही है. उसकी इस यात्रा के रास्ते में कोई भी सीमेंट, चौखट, ईंट या पत्थर,हिरन या गौरैया नहीं आ रहे थे. और तो और भेड़िया भी वहां नहीं आ रहा था.


इस बात की संभावना नहीं है कि आत्मीयता भरी हरी आंखें, जिनका एक अपना कमरा है, जिसमें एक आराम कुर्सी है, मिट्टी की गुड़िया है, और भट्ठी पर रक्खी एक थाली है वहां एक भेड़िया आये और वार्निश की हुई मेज के अंत में टंगे काक-भगौड़े को सूंघे. उनके धूसर कोट पर पडी बर्फ की कोई भी सिलवट पिघले और बूँद बन कर झालरदार कालीन पर गिर पड़े - ऐसा नहीं हो सकता.


वहाँ कोई भेड़िया नहीं है. यह तो उसकी पोती है जो कि एक लाल कनटोप, पहन कर आती है. वो चाहती है कि वो चली जाए और उसे छोड़ दे, वो उसे कतई पसंद नहीं करती है, ये एक अजीब सा संदेहास्पद इंसानी व्यवहार है. रिटालिन की प्रतिक्रिया के चलते, जैसे एक झूठ हो, कोई भेड़िया नहीं है.


आवाजें जो घर के सामने एक मोटर के पार्किंग के स्थान पर उसके रुकने से पैदा होती हैं, और फिर कार के दरवाजे के बंद होने की आवाज़.


तीखे ठण्ड के मौसम में नंगे हो रहे रहे जंगल के बीच दादी के घर ने अपनी पहचान को बनाए रखा था. रोशनदान, छत का कोना, धुंधलाया शीशा, खंभे और शहतीर, सत्रह घड़ियों (एक अज्ञात चीड के पेड़ की हाथों से बनी है, एक जापानी देवदार की बनी हाथ से बनी, एक हाथ के बने नर्म लोहे से बनी,एक बैटरी चालित अलार्म घड़ी चेरी की लकड़ी की मेज के ऊपर और मेहमानों के कमरे के बिस्तर के बगल में है, इसकी सुई काले प्लास्टिक की हैं), समाचार पत्र और आग के लिए लकड़ी, फायरप्लेस के साथ ढेर बने रखे हैं.दूर देखने वाले चश्मे में चेन लगी है, मुख्य दरवाजे पर बूट रखे हैं(इनमे से एक जोड़ा पुरुषों के बूट का है, जो ऐसा लगता है कि विषयासक्त शताब्दी से पहले की सदी से खाली रखे हुए है भले ही ये पक्के तौर पर वही सदी थी जो घाव बन गयी, जो भेड़िये की विलक्ष्णता के अलावा सब कुछ बदल गयी), सिलाई का डिब्बा जिसमें सभी आकार के ढेरों बटन थे, कद्दूकस, अंडा काटने वाला, आलू मसलने वाला, खाना पकाने के बर्तन से भरीं दो दराजें(अल्मूनियम या स्टील के), लोहे की देगची, शीशे का जार जिस पर नीले बीड, खिड़की से आ रही रोशनी से दमक रहे थे, पूरा वातानुकूलित, 53 सालों के टैक्स के कागज करीने से बक्से में करके तहखाने में रखे हुए, झाड़ू झाड़न और एक वैक्यूम क्लीनर 22 कैलीबर का हथियार जो तहखाने की सीढियों के नीचे की अल्मारी में रखा है जहाँ दादी माँ अब कभी नहीं पहुंच सकती है. ये सारी चीज़ें मिलकर एक व्यवस्था बन जाती हैं, और उनके सामने जंगली भेड़ियों से भरे जंगल दूर तक पीछा करते हैं.


जब बूढा जीवित था, घड़ी की टिक टिक,शांत और सुरक्षित घर उसे तृप्त रखते थे, और बर्फ की चादर से ढकी दुनिया, जो चौड़ी हो रही दाढ से निकल रही कूकने जैसी आवा़ज़ करती थी, उसे संतुष्ट रखती थी. उसके गर्म हाथ में अपना हाथ रख कर, खिड़की के वितान से बर्फ के तूफान को सफेद तकिये बनाते देखते रहना. दादी माँ के लिए, बर्फ के ढेर से अटी पड़ी जमीन में शाहबतूत के बीज ढूंढने की कोशिश करना, सदाबहार की तीखी पत्ती से घायल होना, और शीतदंश से पीड़ित होना, सब सही था. घर जंगल में इकदम शांतिपूर्ण था, और उसके हाथ अपने दस्ताने में शांत, और खतरे में भी थे ये एक सुरक्षित जगह थी.
बूढे की मौत के बाद, करीब आधी सदी से असुरक्षा सब कुछ खाली किये जा रही थी. पहले की स्थिति मे वापस जा पाना उसके लिये अब संभव नहीं था. दादी भेड़ियों को याद करती थी.


पीछे का दरवाजा थरथरा के खुला, और पोती ने बाहों के बोझ को उतारना शुरु किया. युवा आवाज में एक गीत उभरा.
"भगवान उस बच्चे को आशीर्वाद दे जिसका अपना... ~"


उसकी पुरानी आवाज अब कफ़ से भरी हो गयी है, और दादी माँ बिस्तर पर अपने बदन को एक बेहद गर्म कंबल में लपेटे हुए सिर्फ धुआं उलीचती रहती है. वो बूढे को देखने के लिये अपनी गर्दन घुमाती है, लेकिन कह नही सकती कि वो वहां था.


मौत और हार के बाद भेड़ियों को भगाना बंद हो गया, और मरदाना पोती ने फर्नीचर बाहर कर दिया, गृहयुद्ध से अवकाश प्राप्ति के फ्रेम किये कागजात, 80 साल पुरानी क्रिस्टल की मिठाई की ट्रे और तीन मस्तूलों वाली क्लिपर नौका का लिथोचित्र, साथ ही बेरहमी से बड़े पैमाने पर बनी स्कैंडिनेवियाई गद्देदार कुर्सी जिसके हत्थे को एक एल आकार के पाने में बदल दिया गया था, सबको एक घरेलू सेल लगाकर बेच डाला, और सुई वाली घड़ी को डिजिटल घड़ी से बदल डाला. अभिभावक की गैरहाजिरी में, उसकी रखवाली करने के लिए कोई मतलब नहीं है. भेड़ियों से भरा जंगल दादी माँ के गुजरने के पहले ही विलुप्त हो जाएगा.


पोती, पहले से ही (यह कल ही समझाया गया था) वाई-फाई जैसा कुछ लगा रही थी. वो अदृष्य ज़बान हर जगह पहुंचती है, दीवारों से परे, इलेक्ट्रोमैग्नेटिस्म से सबकुछ चाटती है- सब्जियों से पानी, घड़ी का भीतरी हिस्सा, और दादी माँ की बूढी हड्डियां तक चाट जाती है. ये चाटना इस लिये चाटा जाता है ताकि ये सुनिश्चित हो सके कि वे दुनिया भर में फैली गपशप का हिस्सा है या नहीं. वाई-फाई, लाई-फ़ाई, जंगली आग, उड़ती-आँख और अन्य अपनी तपस्या का भुगतान करने के लिये जूझते रहते हैं.


जब दादी माँ के बाबा ने उनके लिये ये घर बनाया, उनकी दाढी सफेद हो गयी थी, और जब जंगल को छिन्न भिन्न करने के लिये विदेशी प्रेम अड़ियल हो गया, जब उस व्यक्ति ने जवान पेड़ और घने ओक के पेड़ को एक ही तरह से काट कर गिरा दिया, वो भी घड़ी ले आए. घड़ी में समय बीतता गया, और वह लकड़ी काटता गया. पाखंड के झाड़-झंखाड़ से पिछले घावों को इकट्ठा करते हुए कुल्हाड़ी और घड़ी, टिक-टॉक और खटाक-खटाक चलती रही, घाव की जगह पर भट्ठी जलती रही और कालीन से ढंकी, बंद पड़ी दुनिया के हर खूंट को रगड़ती रही. भेड़िया चारों ओर जा-जा कर बर्फ सूंघता रहा, और गौरैया की हड्डियों और उसके नीचे एक इंडियन की हड्डियों को ढूंढ निकालता है. जिस शांति और निश्चिंतता को उनके बाबा ने खोजा था वो वहां शुरु से नहीं थी, बल्कि वो इंसान की बनाई हुई थी, एक नरसंहार और छूत की बीमारी के बाद दबा दी गयी तीखी खामोशी. गर्मी की हरियाली, पंछियों की चूं-चूं, पुराने पेड़ों के गिरने की आवाज़ के कोलाहल में, गर्मी के बहते पानी में आगे जाता, भेड़िये का इंतज़ार करता, मशरूमों की खरपतवार जो छाया बन गयी थी.फिर भी, उस छोटी सी दुनिया के सन्नाटे में वो सदा ही ऐसी थी.


लेकिन अब - इस चिंतातुर, लाल हुई, पोती को अब समय का एहसास हुआ. वाई-फाई, और पत्नी की आँख, सितारों का व्यास जानती है, युवा सितारों की वंशावली, यहाँ तक कि वह कारण भी जिसकी वजह से यहूदी खतना कराते हैं. और उपग्रह, उपग्रह को रात में निर्जन धरातल पर छोड़ कर, कामुक आँखों से हर चीज़ को देखती है. जंगलराज खत्म हो गया है. पत्नी की आँख हर चीज़ को पैकेटों में तराश देती है...या शायद पॉकेटों में (या जानने का कोई तरीका नहीं है कि पोती ने क्या कहा था). घड़ी मूर्खता का एक आभूषण मात्र है, जो टिक-टॉक की आवाज़ करती है, और भेड़िया केवल उसका साथ देता चल सकता है.


माइक्रोवेव बजता है, और लगता है पोती खाने के लिए कुछ पका रही है, शायद सूप. दादी को तब बहुत अच्छा लगता था जब पोती नन्ही थी और लगभग हर चीज़ से विस्मित हो जाती थी. जब वह मैदान से फूल उठाती थी, और मर्द के घुटनों पर सो जाया करती थी, डरावने सपनों के कारण रोते हुए उठ जाया करती थी कि भेड़िया डरावना लग रहा था.
एक अच्छी दादी माँ, पोती को आज के रूप में को पसंद करती. हालांकि, वह एक अच्छी दादी माँ नहीं है. उसका जंगली पत्नी होना भेदिये के स्वभाव का हिस्सा था.एक बेकार पड़े, बूढ़े हो रहे शरीर के बिस्तर के पास से देखते हुए. ये विश्वसनीय कॉलेज जाने वाली लडकी अपना सूप पका रही है.


ट्रे(आइवी लता के पैटर्न के साथ तांबे की बनी) के ऊपर चम्मच बजती है- वो जल्दी से पहुचती है. अभी जहां जिस जगल कोई भी घड़ी नहीं है, वह अजेय है. वह एक पत्नी जैसी नजर डालती है, और उनमें लाली भर लाती है. उस औरत को खुश रखने के लिये कोई भट्ठी नहीं, अल्मारी नहीं, बोर्ड नहीं, आग को कुरेदने वाली छड़ी नहीं, मिट्टी के बर्तन नहीं, मोम नहीं, लोहा नही, सन नहीं, मांस नहीं, क्रीम नहीं, लिंकन डगलस की बहस नहीं. वो चीज़े जो उसे चीजें खुश करतीं हैं वो मोनोसोडियम ग्लूटामेट(भोजन का स्वाद बढाने वाला) और कृत्रिम स्वीट्नर ऐस्पार्टेम, ग्राहकों का समर्थन, रियलिटी टीवी, टेट्रा पैक, डेटाबेस, गैलियम, कृत्रिम स्वीट्नर स्प्लेंडा और कम्प्यूटर से पैदा की गयी तस्वीरें हैं.


समय, जैसा कि हाल के दिनों में ही चलता रहा, ख़ुशी-खुशी चलता जाता है. न दरवाजा खुलने की कोई आवाज़ है, न फर्श पर कदमों की आवाज़ है. केवल पोती का चिकना चेहरा चाँद की तरह आता है, और चम्मच स्टील हो जाती है और कंपन एक बिजली की कौंध जैसा जो बेहद नज़दीक होकर भी अनदेखा जैसा है, जो गाय के पुट्ठे के मीट और लहसुन तथा आलू की महक ढूंढता है.


अगर खरपतवार के साथ जंगल भी बहुत बढ गया होता और पत्नी निगाहों से दूर हो गयी होती, भेड़िया सामने के दरवाजे या घड़ी के आरपार बाहर चला गया होता, सूप देने वाली सजातीय पर अपनी दाढ के साथ कूद पड़ता और उसकी रीढ को एक ही बार में दांतों से कूंच डालता, टैटू की हुई उसकी खाल को फाड़ डालता, और कंबल को खून से भिगो डालता.


दादी माँ चम्मच को पकड़ने के लिये कांपते हुए, अपने होंठ एक बंदर की तरह लटकाती है. कांपते हुए इसे पकड़ती है, सूप की गर्मी और चटपटापन उसके गले के नीचे उतरता है और एक बूंद उसकी ठोढी पर से फिसल पड़ती है.


धूमिल आँखो से, वो अपनी पोती को मुस्काते हुए देखती हैं. और उसकी आवाज़ में गर्मी है. "दादी माँ- आप की आंखें कितनी बड़ी है?"



मूल लेखक- (बेंजामिन रोसेनबाउम)     http://en.wikipedia.org/wiki/Benjamin_Rosenbaum

रविवार, 21 अप्रैल 2013

यदि होता.....

यदि होता सत्तासुर, तो मैं जनपथ में रहता,
खाकी वर्दी वाले होते, मन भी काला होता।

मीडियाजन गुण गाते रहते, दरवाजे पर मेरे,
चमचे तलवे चाटते रहते, संध्या और सवेरे।

आँख पे रखके काली ऐनक, कान में खूँट भरके,
चैन की बंसी बजा-बजा कर कान फोड़ता सबके।

यदाकदा आक्रोश जता कर, शर्मिंदा मैं होता,
यहाँ-वहाँ फिर घूम-घाम कर, करवट ले सो जाता।

बाँट-बाँट कर, लूट-लूट कर, भरता मैं भंडारे,
चापलूस और चरण चाट को रखकर सबके आगे।  

सोमवार, 21 जनवरी 2013

आओ मिल कर बेचे खायें......


तुम भी खाओ हम भी खायें, बन के पूरे पागल,
अभी तो सारा देश पड़ा है, बहुत बचे हैं जंगल।
जनता को रोटी के चक्कर में, कर डालो पागल,
रोते-रोते सो जायेगी सुसरी, नहीं करेगी दंगल।
हमने खाया, खूब पचाया, बैगन हो या बड़हल,
जनता मांगेगी तो दे देंगे, उसको बासी गुड़हल।
कपड़े सारे नोच लिये हैं, बचा ये हमरा आंचल,
इस पर आँख जमा रखी है, घूर रहे हो प्रतिपल।
पैरों में पड़ गयी बिवाई, दृष्य हो गया बोझिल,
वोट मांगने फिर से आ गये, लेकर पूरी बोतल।
मजा बड़ा अब आ रहा है, बजा रहे हो करतल,
थोड़ी सी तो कसर छोड़ दो, हो तुम कैसे अंकल।
आओ खेले करके फिक्सिंग, दिखे हो जैसे दंगल,
साथ-साथ रहेंगे हम सब, सोम हो या हो मंगल।
माल मजे का उड़ा के भइया, जनता को दो डंठल,
देखो फांका काट रहे हैं, हड़प के नोट के बंडल।
सड़क बनायी, बांध बनाया, सभी बनाया अव्वल,
हर ठेके में खूब कमाया, बरसे नोट के बंडल।।

बुधवार, 9 जनवरी 2013

मेघदूत...समर्पण

पिता जी की पुस्तक 'मेघदूत-भावानुवाद' से....साधिकार...

तुम यश:पूत, तुम कवि-कुल-गुरु,
मैं तुच्छ अकिंचन दिशाहीन,
तुम वाणी के वर्चस्वि-पुत्र,
मैं अभिव्यक्ति-सामर्थ्यहीन

तुम काव्य कला के सागर हो,
मैं हूँ, तितीर्षु भयभीत-मीन,
तुम यक्षराज से स्वर-साधक,
मैं अविवेकी, स्वर-हीन, दीन,

अपनी अञ्जलि में लाया हूँ,
तव कुसुमों की माला- नवीन,
अवगुण-गणना-निरपेक्ष इसे
स्वीकार करो हे! कविप्रवीण।।
      डॉ.अभय मित्र

रविवार, 23 दिसंबर 2012

रेयरेस्ट ऑफ रेयर....


मनीष तिवारी कल प्रेस कांफ्रेंस में कई बार बोले कि गृहमंत्री का बयान पढ़िये जिसमें "रेयरेस्ट ऑफ रेयर" मानते हुये, बलात्कार के इस राजधानिक मामले पर कार्यवाही की जायेगी, वे आगे जोड़ते हैं कि कानून के जानकार यह जानते हैं कि इस वाक्यांश "रेयरेस्ट ऑफ रेयर" का क्या मतलब होता है। मनीष क्या यह बतायेंगे कि...

1. अगर यह "रेयरेस्ट ऑफ रेयर" मामला है जैसा कि गृहमंत्री अपने बयान में(प्रेस को जारी) स्वीकार कर रहे हैं  तो प्रेस कांफ्रेस स्पष्टीकरण के लिये नहीं बल्कि गृहमंत्री और गृहसचिव के इस्तीफे की पुष्टि के लिये बुलायी जानी चाहिये थी।(अगर इस देश का गृहमंत्री "रेयरेस्ट ऑफ रेयर"  मामले की जिम्मेदारी नहीं लेगा तो यूपीए की चीफ को ले लेनी चाहिये, परधनमंत्री तो बेचारु हैं।)

2. कानून के जानकार, जानकर क्या करेंगे ....मामला आम आदमी का है, बात उसके समझ में आनी चाहिये।

3. अगर किसी केन्द्रीय मंत्री या किसी भी राजनीतिक दल के महत्वपूर्ण नेता की बेटी के साथ ऐसा होता तो क्या कार्यवाही की जाती? 

4.आखिर वह कौन सा हादसा होगा जिस पर संसद का विशेष सत्र बुलाकर एक विशेष अध्यादेश जारी किया जायेगा। 

(अगर देश की आधी जनसंख्या के पीड़ित होने पर यह नहीं हो सकता है तो भारत द्वार-इंडिया गेट, पर युवा सही ही कह रहे थे कि "ये सरकार निकम्मी है, सोनिया जिसकी मम्मी है।", क्योंकि अगर चे, मम्मी और उनके कुनबे की सुरक्षा पर कुछ बोला तो मम्मी के चाटुकार उनकी सुरक्षा के लिये परिवार के बलिदानों की कहानियों की झड़ी लगा देंगे।)

5.आखिर कब तक हम मैंगो पीपुल इनके बलिदानों के पुरस्कार स्वरूप अपना बलिदान कराते रहेंगे। कल की प्रेस कॉन्फ्रेंस में किसी पत्रकार ने यह क्यों नहीं पूछा कि मनीष, शिंदे, आरपीएन..वगैरह-वगैरह अपनी सुरक्षा का बोझ देश से कम करने के बारे में क्या सोच रहे हैं, जिससे कि जनता की सुरक्षा बढ़ायी जा सके। हमारे किसी पत्रकार ने उनसे यह नहीं पूछा कि "रेयरेस्ट ऑफ रेयर" मामले उनकी यानी, यूपीए चीफ, परधनमंत्री, और मंत्रिमंडल की कोई नैतिक जिम्मेदारी बनती है या सब घोल कर पी गये।

(कुछ बरस पहले देश के मंत्री की बिटिया को अगवा करके आतंकियों ने अपने भाइयों को छुड़वाया था, तब तो निर्णय बड़ी जल्दी ले लिया गया। यह प्रेस कांफ्रेस करने में सरकार को पांच दिन लग गये। प्रेस कांफ्रेस करने वाले कह रहे थे उनकी भी बेटियां हैं...क्या उनकी बेटियां बस में सफर करती हैं...क्या उनकी बेटियां भारत द्वार, रायसीना आदि जगहों पर थीं? हमें इन सुविधासंपन्न लोगो से किसी भी तरह की कोई भी हमदर्दी नहीं रखनी चाहिये।)

6. कि हमें क्या करना चाहिये....।

वैसे सुन लीजिये..झारखंड से खबर आ रही है कि ...पांच छिछोरों को लोगों ने पीट-पीट कर मार डाला, तो सीख यह है कि जो छेड़खानी करे ...उसे वहीं पर धर दबोचिये...इंतज़ार मत करिये। 

(मुझे याद है जब हम छोटे थे तो हमारे इलाके के एक दरोगा किसी छिछोरे को पकड़ते थे तो उसके सर पर चौराहा बनवा देते थे (मानवाधिकार वाले तो उनको मार ही डालते) और किसी प्रभावशाली का फोन के आने तक उसकी कायदे से पूजा कर देते थे...जिससे कि ऊपर वालों को यह कह सकें कि साहब हमको क्या पता कि जनाब आपके सुपुत्र या रिश्तेदार हैं...हमने तो बस खुजली मिटा ली...।)

.......कहीं सरकार और उसकी व्यवस्था मैंगो से यह अपेक्षा तो नहीं कर रही है कि मैंगो, कानून अपने हाथ में ले लें......

.....वैसे हम आम जन को एक बात का ध्यान रखना चाहिये कि कोई भी व्यक्ति जो छेड़खानी भी कर रहा हो, उसकी वहीं धुनाई कर दीजिये...इंतज़ार मत करिये...क्योंकि न्याय में हो रही देरी (पीड़ित का इंतज़ार) वह मुख्य कारण है जिससे शोषण करने वाले का साहस बढ़ता है।जब एक बार जूता-लात खा कर छिछोरे का पेट भर जायेगा तो अगली बार कम से कम सोचेगा जरूर कि छिछोरपना करें या नहीं....






गुरुवार, 6 दिसंबर 2012

FDI की बहस से निकले कुछ भूत......


कल आनंद शर्मा को संसद में यह कहते सुन कर बड़ा अजीब लगा कि हल्दीराम भी अपने स्टोर्स बाहर खोल रहा है, इसलिये हमें भी दूसरों को मौका देना चाहिये। कुछ ऐसा लगा कि मानो कोई हमे चुटकी काटने दे रहा है तो हमें उसको अपने हाथ काटने की इजाज़त दे देनी चाहिये। आनंद शर्मा जैसे लोग चरण वंदना करके क्या बन सकते हैं इसका उदाहरण आपके सामने है। हम समझ रहे थे आनंद शर्मा भारत सरकार के मंत्री हैं, लेकिन उनके इस तर्क से तो लगता है कि वे कम से कम भारत सरकार के तो मंत्री नहीं है, आने वाले समय में पता चलेगा कि वे किस देश के मंत्री हैं। कपिल सिब्बल कह रहे थे कि सिर्फ 18 शहरों में किराना स्टोर खुलेंगे, और बात ऐसे हो रही है मानो पूरे देश में इनकी बाढ़ आ जायेगी। तो कपिल साहेब ये 18 शहर देश के बाहर कर दिये आपने, कल आप यह तो नहीं कहेंगे न कि दिल्ली में चांदनी चौक में आतंकवादियों ने बम फोड़ा है इसलिये सारे देश को चिंतित होने की जरूरत नहीं है। क्योंकि आपने दिल्ली और विशेष रूप से चांदनी चौक का निर्यात कर दिया है। सिब्बल की बाते सुन कर मुझे इतिहास की किताब के वे शब्द याद आ गया जब अंग्रेजों ने बंगाल, अवध आदि के नवाब से सीमित जगहों पर लगान वसूली की अनुमति मांगी थी....अंत क्या हुआ सबको मालूम है।

हमारे देश के ये मंत्री जितना मुँह खोलते है, उनकी औकात उतनी ही सामने आती जाती है। संसद की गरिमा पर लेक्चर देने वाला आदमी, विपक्षियों को जानवर कहता है। अन्ना को भगोड़ा कहने वाला मंत्री बन जाता है। देश को बेच डालने के लिये कुतर्क देने वाला वाणिज्य मंत्री बना दिया जाता है। ज़बान के इतने गंदे लोग भीतर से कितने गंदे होंगे इस बात का आप अंदाज़ ही लगा सकते हैं। कपिल सिब्बल के साथ ऐसे कितने ही किस्से मिल जायेंगे। इस पर तुर्रा ये कि ये हमारे समाज से आये हैं।


सरकार को FDI की कितनी जल्दी है इसकी बानगी एक बयान से और आती है जब आनंद शर्मा कहते है कि FDI पर काफी बहस हो चुकी है काफी समय बीत चुका है। तो भईया वॉलमार्ट के प्रवक्ता जी कुपया उन बिलो पर भी निगाह मारिये जो पचीस-पचीस साल से संसद की धूल फांक रहे हैं, जैसे लोकपाल, महिला आरक्षण और न जाने कितने। आनंद शर्मा वॉलमार्ट का समर्थन करते हुये अपनी कुहनी के बल बैठ कर संसद में कह गये कि "कंसेंसेस का मतलब आम सहमति है, सर्व सहमति नहीं...एंड इफ यू हैव टू वेट फॉर यूनानिमिटी, देन यू विल हैव टू वेट टिल एटर्निटी" Consensus ka matlab aam sehmati, sarva sammati nahi..If you have to wait for unanimity, you wait till eternity: Anand Sharma


तो प्रभु थोड़ा प्रकाश इधर भी डालिये, यह तथ्य भी थोड़ा स्पष्ट कर दीजिये कि महिला आरक्षण बिल पर आम सहमति का क्या मतलब है....मेरा ख्याल है वहां पर आम सहमति सर्व सहमति ही है...क्योंकि उसे "एटर्निटी" तक लटकाना है। इन जैसे बिलों पर सरकार को कतई जल्दी नहीं है, क्योंकि इनसे धनागमन नहीं जुड़ा है? ये कमअकल, इतना नहीं समझते कि अमरीका जैसे मुल्क सिर्फ और सिर्फ अपना भला देखते हैं और उनको आपके भाड़ मे जाने की भी चिन्ता नहीं है। वैसे मुझे तो लगता है कि ये खूब समझते हैं क्योंकि ये भी सोचते अमरीका की ही तरह हैं.....सिर्फ अपना भला देखो, देश का भला देखने को बहुत सारे लोग हैं।

आइये इनके बंधुओं और सखाओं पर एक दृष्टिपात कर ले....अर्थात...लालू, मालू, बहनालू और करुणालू....एक चारे का मारा, दूसरा अधिक कमाई का मारा, तीसरी पर घोटालों की तलवार, चौथा घोटालेबाजों के खानदान का मुखिया। इन चारों का ईमान सीबीआई के पास गिरवी है। इधर सीबीआई...आयी और इन सबकी धोती खुल जाती है। बहाना बचता है सांप्रदायिकता। बड़ी अजीब सी बात है धर्म और जात के नाम पर वोट मांगने वाले और अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों का डर दिखाने वाले खुद को सेक्युलर कहते हैं। और उनको वोट देने वाला तबका इतने बरसो में नहीं जान पाया कि असली सांप्रदायिक कौन है। खैर वो भी समझेगा...। और फिर यहां FDI पर चर्चा के समय आप विरोध करते हैं लेकिन जब निर्णय लेने की बारी आती है तो दुम दबा के भाग लेते है, क्योंकि आपके हाथ तो दबे हैं। आप लोगों के इस निर्णय पर कोई भी तर्क टिक नहीं सकता। इन चारों ने सरकार की नाक नहीं बचायी है, इन्होने अपनी जान बचायी है।

सारांश यह है कि चाहे FDI हो या CBI सरकार की अपनी जिद है, क्योंकि सरकार के कर्ताधर्ता अपने तक सीमित हैं और इलेक्शन को वोटर मैनेजमेंट से अधिक कुछ नहीं समझते। उनके लिये लोकतंत्र एक प्रबंधन है जिसे हर पांच साल पर सेट किया जाता है। उनके लिये राजनीति एक पेशा है जो कमाई करने के लिये अपनाया जाता है।